Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय परम्परा के अनुशीलन से नया दर्शन संभव
२५७
अतः इनके सिद्धांत एवं व्यवहार का निष्पक्ष अध्ययन भारतीय दर्शन का एक अनिवार्य एवं अविभाज्य अंग प्रतीत होता है।
(५) क-आज के भारत में अनेक विश्वविद्यालय हैं। उनमें दर्शन के विभाग हैं तथा दर्शन के अनेक विद्वान अध्यापकों द्वारा दर्शन का अध्ययन अध्यापन हो रहा है। सम्भव है कि इस अध्ययन-अध्यापन में आने वाले अनेक मत अपनी उत्पत्ति की दृष्टि से अभारतीय हैं किन्तु उनका अध्ययन-अध्यापन हमारे विश्वविद्यालयों में हमारे अपने चिन्तकों द्वारा हो रहा है तो क्या हम उन्हें सदा अभारतीय दर्शन ही कहते रहेंगे या उनका समावेश भारतीय दर्शन में करेंगे ?
ख--इन विश्वविद्यालयों के अनेक उद्भट विद्वानों ने अनेक प्रकार से दर्शन की सेवा की है तथा अपने विचारों को स्फुट या अस्फुट रूप में अपने द्वारा रचित ग्रन्थों में निबद्ध किया है। क्या इन विचारों को भारतीय दर्शन में समावेश न कर हम एक महती ज्ञान सम्पदा ( जो वास्तव में भारतीय हैं ) से अपना अधिकार समाप्त नही कर रहे हैं ? इन विद्वानों में प्रो० हिरियन्ना श्री के. सी. भट्टाचार्य, डा. रानाडे, डा. राधाकृष्णन, डा. जे० एन० सिनहा, डा० दासगुप्ता, डा. टी. आर. वी. मूर्ति, डा० महादेवन आदि के साथ अनेक और नाम जोड़े जा सकते हैं।
(६) प्रत्येक प्रचलित भाषा में दर्शन सम्बन्धी विचार होते हैं। ये विचर प्रायः दो प्रकार से निबद्ध होते हैं (१) स्वतन्त्र दार्शनिक ग्रन्थ के रूप में, (२) साहित्यिक कृतियों में दार्शनिक पृष्ठभूमि के रूप में। भारत एक बहुभाषीय देश हैं जिसमें संविधान द्वारा चौदह भाषाओं को राज्य भाषा का स्तर प्रदान किया गया है। इन प्रयेक में उपलब्ध दार्शनिक सामग्री को भारतीयदर्शन की उपलब्ध राशि में जोड़ना क्या आवश्यक नहीं है ?
(७) यह मान लेना कि प्राचीन भारतीय साहित्य-संस्कृत, पालि, प्राकृत आदि में जो कुछ दार्शनिक चिन्तन की सामग्री थी संगृहीत हो चुकी हैं, निराधार एवं कल्पित मान्यता है। क्योंकि अभी देश-विदेश के अनेक पुस्तकालयों में सहस्रों पाण्डुलिपियाँ पड़ी हुई हैं जिनको प्रकाशित किये बिना उनके सम्बन्ध में कुछ भी कहना सीमा का अतिक्रमण करना है। जो प्रकाशित सहित्य है उसका भी पूर्ण एवं साङ्गोपाङ्ग अध्ययन अनेक सूक्ष्म दार्शनिक सिद्धान्तों को प्रकाश में ला सकता है जो वास्तव में भारतीयदर्शन के अज्ञात भण्डार हैं। इनको प्रकाश में लाये बिना भारतीय दर्शन की सीमा बनाना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा?
परिसंवाद-३
३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org