Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
दार्शनिक चिन्तन का विषय प्रतिपादित किया। सकरात ने ज्ञान की उपलब्धि के लिए अनेक आवश्यक शर्तो का विवेचन किया, जिसके फल स्वरूप तर्कशास्त्र का जन्म हुआ। इनके शिष्य प्लेटो के द्वन्द्व-न्याय ( Dialectic) और अरस्तू के प्रथम दर्शन ( First Philosophy ) के रूप में नीतिशास्त्र और तर्कशास्त्र का विकास
हुआ।
यजुर्वेद या सामवेद जो ऋग्वेद की ही शृङ्खला के हैं, याज्ञिक प्रक्रिया से ओतप्रोत हैं। यज्ञक्रिया का विकसित रूप ब्राह्मण ग्रन्यों में देखा जा सकता है। ब्राह्मण ग्रन्थों के बाद आरण्यकों की रचना हुई, जिसके कुछ अंश को दार्शनिक काव्य ( Philosophical Poems ) की संज्ञा दी गयी, जो आज उपनिषद् के नाम से विख्यात है। आनन्दमय जीवन की भावना से ओत-प्रोत उपनिषद् की दार्शनिक दृष्टि भौतिक एवं ऐन्द्रियक नहीं, अपितु अलौकिक एवं आध्यात्मिक है। यहीं से भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाएँ अविरल धारा में प्रवाहित हुईं।
ईशा पूर्व सातवीं शताब्दी से दूसरी शताब्दी के मध्य अनेक ऋषियों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने ओजस्वी चिंतन से अनेक दर्शनों को जन्म दिथा। इनमें मुख्यत: वृहस्पति, कपिल, गौतम, कणाद, जैमिनी, वादरायण, वर्द्धमान और बुद्ध ने क्रमश:--लोकायत, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, योग, मीमांसा, वेदान्त, जैन और बौद्ध दर्शन का प्रतिपादन किया।
प्राचीन भारत के इन महान दार्शनिकों ने अपने आनुभविक तथ्यों को सूत्रों और संक्षिप्त सूक्तियों में व्यक्त किए। जिसके खण्डन-मण्डन से भारतीय दर्शन विभिन्न शाखाओं-प्रशाखाओं में विकसित हुआ। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ये सूत्र इन दार्शनिक प्रणालियों के आरम्भ बिन्दु नहीं थे, अपितु ये परिकल्पनाओं के एक लम्बे दौर के समापन के सैकड़ों वर्षों से मौजूद किसी विचार के अस्पष्ट स्वरूप के स्पष्टीकरण के द्योतक थे । अर्थात् इनका आरम्भ-विन्दु वैदिक वाङ्मय ही है।
प्रकृति-प्रदत्त ऐहिक जीवन की आवश्यकताओं की सामग्री तो सुलभ है ही, पर इस दुःखमय संसार में जहाँ, अनावृष्टि, बाढ़, प्रचण्ड गर्मी, भयंकर तूफान आदि का प्राबल्य है, वहीं मानवीय संवेदनाओं का, हिंसा-प्रतिहिंसा का, नीति-अनीति का, सत्यासत्य के विचार का सर्वथा अभाव है। ऐसे परिवेश में किसी दिव्य शक्ति की
२. के. दामोदग्न् भारतीय चिन्तन परम्परा पृ० ८५
परिसंवाद-३
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