Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों के वर्गीकरण पर एक विचार
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परिकल्पना रवाभाविक हो जाती है। इस प्रकार त्रिविधताप से सन्तप्त मानव की शान्ति के लिए भारत में दर्शन शास्त्र का आविर्भाव हआ है। वस्तुतः मानव में दो स्वाभाविक अवधारणाएँ विद्यमान रहती हैं-( १ ) भौतिक जीवन से सम्बन्ध रखने वाली तथा ( २ ) अलौकिक आदर्श से सम्बन्ध रखने वाली।
प्राचीन भारत के तपोनिष्ठ मनीषियों ने अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर परिवर्तनशील अनेकरूपात्मक पदार्थों के अन्तः में विराजमान एकरूपता को पहचाना। उन्होंने यह प्रतिपादित किया कि जिस प्रकार इस परिवर्तनशील जगत् में एक अपरिवर्तनशील तत्त्व विद्यमान है. उसी प्रकार एक अपरिवर्तनशील तत्त्व की सत्ता इस शरीर के भीतर विद्यमान है। वही जगत का नियामक तत्त्व ब्रह्म है, और शरीर का नियामक तत्त्व आत्मा के नाम से अभिहित है।
श्रुति हमें उपदेश देती है कि-आत्मा का साक्षात्कार करो--- 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः' । आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना प्रत्येक दर्शन का लक्ष्य है। कहा भी गया है कि-'आत्मनः स्वरूपेणावस्थितिर्मोक्षः'। श्रुति वाक्यों से आत्मतत्त्व का श्रवण करना चाहिए। ताकिक वृत्तियों से उसका मनन करना चाहिए तथा योग प्रतिपादित उपायों के द्वारा उसका निदिध्यासन करना चाहिए।
भारतीय दर्शन का मुख्य लक्ष्य मानव को सांसारिक दुःखों से, बन्धन से मुक्ति दिलाना है और वह मुक्तितत्त्व ज्ञान या आत्मज्ञान से ही प्राप्त हो सकता है। अज्ञान ही बन्धन का मुख्य कारण है। बार-बार जन्म लेना और सांसारिक दुःखों को सहना ही बन्धन है। भारतीय दर्शन पुनर्जन्म की संभावना का नाश कर मोक्ष-प्राप्ति का उपाय-मार्ग प्रतिपादित करता है। इसीलिए अज्ञान के नाश के लिए वह निदिध्यासन की बात कहता है। निदिध्यासन का अर्थ है स्वीकार्य सिद्धान्तों का निरन्तर चिन्तन । आदर्शमय जीवन की प्राप्ति के लिए, एकाग्र चिन्तन और ध्यान हेतु योग दर्शन का विकास हआ है। मात्र तर्क के द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त स्थायी नहीं होते। और यही कारण है कि भारतीय दर्शन की विभिन्न शाखाओं जैसे-सांख्य, न्याय-वैशेषिक. वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शनों में भी योग का वर्णन किसी न किसी रूप में निरूपित है।
१. बृहदारण्यकोपनिषद् २।४।८
परिसंवाद-३
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