Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं द्वारा प्राप्त थे, उन्हीं के अनुमोदन या विरोध में जिन विचारों का विकास हुआ, वह भारतीय दर्शन है।
भारतीय दर्शन के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए पं० विश्वनाथशास्त्री दातार (सं० सं० वि० वि० ) ने "नाना शास्त्रार्थनिष्पन्ना मतिः स्याद् श्रुतधारिणी" के आधार पर शिष्यों के हित को उनके व्यावहारिक एवं पारमार्थिक जीवन को देखते हुए शास्त्रनिष्णातमति को प्रगट करना दर्शन माना, जो पुरुषार्थ के साधन का मार्ग प्रकाशित करती है।
प्रत्यक्ष, अनुमान एवं शब्द प्रमाणों से पुष्ट ज्ञान संवादी होता है, इसलिए दर्शन शास्त्र के द्वारा भारतीय मनीषियों ने उसे प्रकाशित किया। वास्तव में इदं प्रथमतया शब्द को प्रमाण मानना दर्शनों की भारतीयता है। पं० दातारशास्त्री ने भारत का निवासी होने से दर्शनों को भारतीय कहना उचित नहीं बताया। उन्होंने सम्पूर्ण के उद्गम का मूल स्रोत वेद को ही निर्धारित किया।
प्रो. राजाराम शास्त्री ने पं०दातारशास्त्री से अपने कथन की भिन्नता को स्पष्ट करते हुए कहा कि दातारशास्त्री जी सभी भारतीय विचारों को वेदों से निर्गत मान कर वेदों के प्रामाण्य के आधार पर उसे वैदिक मानते हैं जबकि मैं वैदिक परिप्रेक्ष्य में उनके संप्रत्ययों के आधार पर उद्गत विचारों को भारतीय कह रहा हूँ। इस स्थिति में वेद को प्रमाण न मानने वाले उनके विरोधी स्वतन्त्र विचारों का भी उद्गम स्रोत भारतीय ही है ऐसा मैं मानता हूँ।
श्री सुधाकर दीक्षित ने प्रो. राजाराम शास्त्री के विचारों पर टिप्पणी करते हुए कहा कि जिस प्रकार वैदिक विचारों के परिप्रेक्ष्य में शास्त्री जी ने जो कहा है वह समस्त भारतीय वाङ्मय पर लागू होता है। मात्र भारतीय दर्शन की दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि वेदों के आधार पर जो आत्मा का प्रत्यय बनता है उसके परिप्रेक्ष्य में जो अनुकूल या प्रतिकूल विचार उद्गत हुए हैं, वे भारतीय दर्शन हैं। इसी प्रसंग से ज्ञातव्य है कि वेदों के आधार पर मोक्ष के सम्बन्ध में जो प्रत्यय बनता है उसे आधार मान कर जो विचार उद्धृत हुए हैं, वे सभी भारतीय दर्शन हैं। श्री केदारनाथ मिश्र जी का यह कथन ठीक नही प्रतीत होता कि मीमांसा दर्शन के पूर्ववर्ती आचार्यों ने मोक्ष की कल्पना नहीं की, क्योंकि स्वयं जौमिनी का सूत्र है"स: स्वर्गः सर्वान् प्रत्यविशिष्टत्वात्" इसमें स्वर्ग शब्द नित्य सुखरूप मोक्ष का ही बोधक है। और इसी की प्राप्ति के लिए समस्त वैदिक कर्मों का अनुष्ठान होता है। उन्होंने आगे कहा-जिस प्रकार वैदिक विचारों के परिप्रेक्ष्य में उन्नत
परिसंवाद-३
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