Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण
१८१ यद्यपि यह नहीं है कि भविष्य में इसकी सम्भावना भी नहीं है। किन्तु जब तक मानवसंस्कृति की कोई नई उपलब्धि सामने नही आ रही है तब तक चिन्तन की नवीतता का अर्थ होगा, उसी पूर्व स्थापित तत्त्व को नये परिवेश में रखना। इसी आशय से जयन्तभट्ट कहते हैं :
कुतो वा नूतनं वस्तु वयमुत्प्रेक्षितु क्षमाः। वचोविन्यासवैचित्र्यमात्रमत्र विचार्यताम् ॥
यह विकास का क्रम स्वाभाविक है जो चलता आ रहा है और चलता रहेगा। यद्यपि उसकी गति में कतिपय कारणों से अवरोध होना भी एक स्वाभाविक घटना है । उपनिषद्, शंकराचार्य, वाचस्पति, मधुसूदनसरस्वती और विवेकानन्द की रचनाओं में अद्वैतवेदान्त के प्रतिपादन की जो विभिन्न प्रक्रियाएँ दीखती हैं वे उपर्युक्त कथन को ही प्रमाणित करती हैं। यदि प्रक्रियांश की नवीनता को ही नवीन चिन्तन की संज्ञा दी जाए तो भी इस आक्षेप में कोई बल नही है कि भारतीय दर्शन में अतिप्राचीन काल में जो हुआ बाद में उसका केवल पिष्ट पोषण ही किया गया । न्यायशास्त्र के साहित्य से परिचित कोई भी व्यक्ति यह कहने का साहस नहीं करेगा कि परवर्ती नव्यनैयायिकों ने गौतमसूत्र का केवल पिष्टपोषण ही किया है।
७. देखा जाता है कि सम्पूर्ण भारतीय दर्शन का प्रमुख प्रयोजन प्रायः निर्वाण का लाभ करना है। इसी अर्थ में इसे आध्यात्मिक कहा जाता है। विदित है कि निर्वाण ऐहिक जीवन का आदर्श नहीं है। इस स्थितिमें यह आक्षेप होता है कि सभी भारतीय दर्शन वर्तमान जीवन की समस्याओं से विमुख हैं। और समाज को दृष्टि से पलायनवादी है। यह आक्षेप जिस अंश तक संगत है उसके निराकरण के लिए क्या दर्शन को ऐहिक समस्याओं के समाधान के लिए अभिमुख करना आवश्यक है ? उस दृष्टि से भारतीय दर्शनों का क्या कोई वर्गीकरण किया जा सकता है ?
यह प्रश्न कुछ पाश्चात्य आलोचकों के विचार से अनुप्राणित प्रतीत होता है। निर्वाण वस्तुतः ऐहिक जीवन का ही आदर्श है। निर्वाण प्राप्त होने पर कोई कहीं आता-जाता नही है बल्कि यहीं ऐहिक जीवन में ही क्लेशों से छुटकारा पा जाता है :
परिसंवाद-३
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