Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
भारतीय दर्शन वेदों को सर्वाशेन सर्वोपरि प्रमाण मानता है । अनुष्ठान लक्षण प्रामाण्यकी स्वीकृति के लिए तो वेद ही अग्रगण्य है ।
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(२) प्रश्न - भारतीय दर्शनों का आस्तिक-नास्तिक भेद से विभाजन क्या उचित है ?
उत्तर- इदं प्रथमतया शब्द प्रमाण की अधीनता में वर्णाश्रम धर्म स्वीकार करते हुए ईश्वर की सत्ता को मानना आस्तिक पक्ष है । प्रत्यक्षानुमान पर ही चलने वाला ईश्वर को न माननेवाला नास्तिक है क्योंकि उसके लिए शब्द का साधक प्रत्यक्षानुमान है ।
भारतीय दर्शन का स्वतन्त्र स्वरूप
उपर्युक्त प्रत्यक्षादिप्रमाणत्रयप्रमित अर्थपरक मति के प्रकाशक को दर्शन माते हुए आस्तिक या नास्तिक वादों का संग्रह सम्भव नहीं है । अथवा परीक्षा की दृष्टि से परमत प्रतिषेध एवं स्वमत व्यवस्थापन को एक इकाई के रूप में स्वीकृत किया जाय तो पूर्वोत्तरमुखेन सभी भारतीय दर्शन संग्रहीत हो सकते हैं ।
(३) प्रश्न -- भारतीय दर्शनों के विषयपरक चिन्तन में सांप्रदायिक वर्गीकरण को छोड़ कर विषयपरक वर्गीकरण को स्वीकार किया जाय तो क्या बाधा होगी ?
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उत्तर - विषयको देखकर वर्गीकरण करने में प्रथमतः प्रश्न उपस्थित होता है कि यह चिन्तन उपासना - निरपेक्ष है या उपासना - सापेक्ष । स्मरण रखना चाहिये कि पूर्वपरंपरा के अनुसार भारतीय दर्शनों में विवेचित सभी बाद उपासनापरक हैं जैसे उदाहरणार्थ
अद्वैतवाद
द्वैतवाद
कर्मकाण्ड
परिसंवाद - ३
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एके त्वखिलकर्माणि सन्यस्योपशमं गताः । ज्ञानिनो ज्ञानयज्ञेन यजन्ति ज्ञानविग्रहम् ॥
अन्ये च संस्कृतात्मानो विधिनाभिहितेन ते । यजन्ति त्वन्मयास्त्वां वे बहुमूर्त्येकमूर्तिकम् ॥
त्रय्या च विद्यया केचित्त्वां वं वैतानिकाः द्विजाः । यजन्ते विततैर्यज्ञः
नानारूपाम राख्यया ॥
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