Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीयदर्शनों का वर्गीकरण उपासना निरपेक्ष चिन्तन के प्रति भारतीय मनीषी उदासीन हैं । उपासना करने के लिए प्रमाण की सापेक्षता आवश्यक है अन्यथा उपासना में भ्रम की सम्भावना हो सकती है। भारतीयता तो प्रमाणत्रय पर आश्रित है, नहीं तो भारतवासित्वेन मतों की ग्राह्यता-अग्राह्यता अविविक्त ठहरेगी। इस प्रकार विषय के वर्गीकरण में उपासना को दृढमूल बनाने के लिए प्रमाणों का विभाजन करना अभ्यर्हित है।
प्रमाणप्रसूत उपासनाएँ जिनमें कुछ का उल्लेख ऊपर किया गया है, उनकी आलोचना करना बुद्धिमत्ता का परिचय नहीं है।
प्रमाण सापेक्षता की दृष्टि से प्रायः सभी वाद उपासना में अंगतया विनियुक्त हैं जो शास्त्रों को इष्ट है। जैसा कि मंगलाचरण में उद्धृत है। त्वामेवान्ये शिवोक्तेन मार्गेण शिवरूपिणम । बह्वाचार्यविभेदेन भगवन् समुपासते. इस भागवतोक्ति के अनुसार द्वैत-अद्वैतवाद, वैष्णव-शैवमत आदि की विविधता परस्पर खण्डन-मण्डन के लिए नहीं है बल्कि अपने मत में उपासकों को कृतार्थ का अनुभव कराने के लिए है । शंकाओं के उत्थान से जब किसी मत को मलिन बनाने का प्रयत्न होता है तब उसके निरास के लिए तथा अपनी-अपनी उपासनाओं में दाद्य एवं विश्वास को जागृत करने में "बह्वाचार्यविभेदेन" की उपादेयता है। बुद्धि-वैशारद्य का यह एक शिक्षण-क्रम है। यह विचार वर्णाश्रमेतर को मान्य नहीं होगा, क्योंकि उनके मत में वेदों के प्रति स्थलविशेष में आपेक्षिक प्रामाण्य की मान्यता है। अतः ऐसी स्थिति में सभी वाद वर्गीकृत हो जायेंगे, कहा नहीं जा सकता।
पूर्व इतिहास से विदित है कि जब तक नास्तिकवाद प्रमाण सापेक्ष हो उपासनारत था तब तक वर्णाश्रम समाज ने उसका भी आदर किया तथा जीविका आदि की समस्याओं को सुलझाया। पर जब वर्णाश्रम धर्म के विरोध में उन्होंने वेद प्रामाण्य की उपेक्षा आरम्भ की तब वेदाभिमत वादों से उनको पृथक् करना पड़ा। जिस मत या वाद में पूर्ण वेदप्रामाण्य नहीं है, उसको भारतीय दर्शन नहीं कहा जा सकता । भारतीय होने के लिए वेदानुयायित्व में उनको अपना योगदान करना पड़ेगा। यदि इसको इष्ट मानते हैं तो अपनी उपासता में उन वर्णाश्रम निरपेक्ष मतों के प्रचार के लिए क्षेत्र अति विस्तृत है। अतः कहना होगा कि वेदों के वर्णाश्रम विधान विशेष के अधिकारी वर्णाश्रमी ही हैं। किंबहुना वर्णाश्रमियों को अपनी-अपनी उपासना में प्रवृत्त न कराना नास्तिकवाद का लक्ष्य है तथा वर्णाश्रम के नाम पर वैदिक मर्यादा में रहते हुए ईश्वर की आराधना के माध्यम से राक्षसी प्रवृत्ति को जो पूर्ण
परिसंवाद-३
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