Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण
के माध्यम से उपलब्ध हो सकता है। वह ऐसा प्रत्यक्ष है जिसके लिए हमारा तर्काश्रित परोक्ष ज्ञान साधक नहीं हो सकता है। उस तत्त्व के प्रसंग में हमारे सामान्य अनुभव के सभी प्रमाण परोक्ष होने के कारण अक्षम सिद्ध होते हैं। हम उसकी व्याख्या शब्दों द्वारा कर ही नहीं सकते हैं, इसलिए उसे अवाङ्मनसगोचर कहा गया है। कबीरदास ने उसी के लिए 'ज्यों गूगे का गूज' कहा है और उपनिषदों ने अपनी मान्यता रखी है कि 'नषा तर्केण मतिरापनेया' जो तर्क को सीमा के बाहर है और केवल स्वानुभववेद्य है उसमें तर्क को लगाना ही अनुचित है-'अचिन्त्याः खलु ये भावाः न तांस्तर्केषु योजयेत् ।' तर्क के लिए निर्लक्ष्य होकर केवल व्यापारशील होना पतवार के बिना नाव की गति के समान है। भारतीय दर्शनों का यही दृष्टिकोण है कि जो साक्षात् अनुभव से संसिद्ध अतएव सुनिश्चित तत्त्व है वही वास्तविक लक्ष्य है। उसी में अनुगमन के लिए तर्क की सहायता लेनी है-श्रुत्यनुगृहीत एव ह्यत्र तर्कोऽनुभवाङ्गत्वेनाश्रीयते। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि भारतीय-दर्शन आँख मूंदकर श्रुति का अनुसरण करते हैं। शंकराचार्य डंके की चोट पर घोषणा करते हैं कि 'नाह श्रुतिशतमपि शीतोऽग्निरप्रकाश इति वन प्रामाण्यमुपैति ।' तर्क की जिस अक्षमता का अन्वेषण नवीन युग में काण्ट ने किया, वह यहाँ बहुत पहले हो
चुका था। और यह निश्चित कर लिया गया था कि केवल तर्क के द्वारा हम अन्तिम निष्कर्ष पर कभी नहीं पहुँच सकते हैं :
यत्नेनानुमितोऽप्यर्थः कुशलरनुमातृभिः,
अभियुक्ततरैरन्यैरन्यथैवोपपाद्यते । इसलिए शंकर ने कहा कि 'तर्का अप्रतिष्ठिता भवन्ति, उत्प्रेक्षाया निरंकुशत्वात ।
परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि भारतीय दर्शनों में तर्क की कभी उपेक्षा की गई। वही शंकराचार्य यह भा कहते हैं कि तर्क का भी आदर अपने क्षेत्र में अवश्य करना चाहिए--'तर्कमप्यादर्तव्यम्,' क्योंकि तर्क की अप्रतिष्ठा भी तर्क के ही द्वारा प्रमाणित हो सकती है-'एतदपि हि तर्काणामप्रतिष्ठतत्वं तर्केणैव प्रतिष्ठाप्यते ।' अपरं च, तर्क का यह स्वभाव उसके दूषण के रूप में नहीं लिया गया है। यह तो उसका भूषण है कि वह अप्रतिष्ठित है'अयमेव तर्कस्यालंकारो यदप्रतिष्ठितत्वं नाम ।' तर्क के इस अलंकार का उपयोग शून्यवादियों और अद्वैतवेदान्तियों ने यथेष्ट रूप से अपने दर्शनों में किया। तर्क
परिसंवाद-३
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