Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण
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यह प्रश्न भी आंशिक रूप से गत प्रश्न के साथ सम्बद्ध है। यह प्रश्न इस बात पर आधारित है कि भारत में धर्म विषयक धारणा किस प्रकार की है जिसकी मान्यताओं एवं विश्वासों की पुष्टि करना दार्शनिक चिन्तन के सम्बन्ध में कहा गया है। यहां धर्म मात्र कुछ औपचारिकताओं का संग्रह नहीं है जिनकी पुष्टि करना दर्शन का कार्य क्षेत्र है। भारत के लिए धर्म विश्व का वह शाश्वत नियम है जिसके साथ जीवन को संयोजित करना है। बौद्ध दर्शन में 'धर्म' शब्द का बारम्बार उसी अर्थ में प्रयोग हुआ है जो वैदिक ऋत और सत्य के भी अर्थ का व्यंजक है। वही शाश्वत नियम जिन रूपों में मानव जीवन में अपने को प्रकट कर सकता है उन्हीं के द्वारा धर्म का लक्षण भी किया गया है ।
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।।
धीविद्यासत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥ यह आदर्शपरक ( normative ) है। इसका जो वस्तु परक ( positive) पक्ष है उसी की मीमांसा करना भारतीय दर्शन का कार्य है। उसका साक्षात्कार अन्तःप्रज्ञा ( intuition ) से हो सकता है, उस बुद्धि से नहीं जो तर्क के बन्धनों से बंधी है। बुद्धि की अपनी सीमाबद्धता है कि वह अपनी कोटियों से बाहर नहीं जा सकती है। पाश्चात्य दर्शन में जर्मन दार्शनिक काण्ट ने इस विषय को अपनी Critique of pure Reason में अत्यन्त परिच्छिन्नतापूर्वक समझाया है। यह सत्य है कि अन्तःप्रज्ञा के द्वारा ही उक्त तत्त्व का साक्षात्कार किया जा सकता है किन्तु अन्तःप्रज्ञा उसकी व्याख्या नहीं कर सकती हैं जिसकी अपेक्षा मनुष्य जैसे युक्तिशील प्राणी को है। वह कार्य तो बुद्धि का है जिसका आश्रय लेकर मनुष्य अनेक पद्धतियों से व्याख्या कर्म में प्रवृत्त होता है। इसी से दर्शन के क्षेत्र में अनेक मतवाद का उद्भावन होता है। अनेक मतवाद का अर्थ यह कदापि • नहीं है कि सबके चिन्तन के भिन्न-भिन्न उपादान हैं। इसलिए प्रक्रिया की भिन्नता का अर्थ चिन्तन के विषय की मौलिकता नहीं कही जा सकती है।
इस प्रसंग को स्पष्ट करने के लिए मानव संस्कृति के इतिहास के निष्कर्ष को ध्यान में रखना होगा। टायनवी, कार्ल जैस्पर्स आदि इतिहास दर्शन के मनीषियों की प्रतिष्ठित मान्यता है कि सभ्यता की आदि से लेकर अब तक भी मानवसंस्कृति की जो उपलब्धि हुई है उसका मानक वह सत्य है जिसका आविष्कार प्रायः एक ही समय में संसार की सभी प्राचीन संस्कृतियों में हुआ। भारतवर्ष में वह अवधि उपनिषत्काल से लेकर बुद्ध, महावीर के आविर्भाव के काल तक की है।
परिसंवाद-३
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