Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं सम्बन्ध है | स्पष्ट है कि धार्मिक एवं साम्प्रदायिक वर्गीकरण द्वारा निरपेक्ष अध्ययन को अपेक्षित अवसर नहीं मिल सकता। ऊपर देखा गया है कि भारतीय दर्शनों का धर्म से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध था । इतिहास में इसकी एक सीमा तक उपयोगिता थी, किन्तु अब यह आवश्यक हो गया है कि दर्शन को धर्म से यथासम्भव मुक्त किया जाय, अन्यथा धर्मशास्त्री की तरह दर्शनशास्त्री भी अपने ज्ञात तथ्यों को ऐकान्तिक रूप से प्रतिष्ठित करने लगेगा । इस स्थिति में आगे भी निरपेक्षचिन्तन की आशा करना, व्यर्थ हो जायगा । हमें इसका विचार करना होगा कि दार्शनिक चिन्तन की प्रक्रिया में आत्यन्तिक सत्य के आकलन का आग्रह कहाँ तक समुचित है । वास्तव में भारतीय दर्शनों में ऐकान्तिकता का आग्रह, उस पर धार्मिक प्रभाव है । वास्तव में ऐकान्तिकता का आग्रह मूलतः अदार्शनिक अवधारणा है । इस प्रसंग
'हमें इसका ध्यान रहना चाहिए कि दर्शन न तो विज्ञान है और न तो धर्म । इस स्थिति में दर्शन विज्ञान की तरह नितान्त अनैकान्तिक नहीं है और न तो धर्म की तरह नितान्त ऐकान्तिक । उसके चिन्तन का मार्ग दोनों के मध्य है ।
इस प्रकार निरपेक्ष चिन्तन की दिशा में पहला क्रम होगा, भारतीय दर्शनों का विषयानुरोधी नयावर्गीकरण प्रस्तुत करना । इस नये वर्गीकरण में दर्शनों के विकासक्रम का आकलन किया जा सकता है । ज्ञानों का विकास विभिन्न सिद्धान्तों के पारस्परिक आदान-प्रदान से सम्भव होता है । पूर्ववर्ती एवं समसामयिक दर्शनों के बीच कुछ ज्ञान अन्तर्यमन करते रहते हैं और उस प्रक्रिया में ज्ञान का उत्तरोत्तर विकास होता रहता है । इस प्रकार के विकास क्रम में अध्ययन करने पर एक ओर दर्शनों का वास्तविक मूल्यांकन किया जा सकता है और दूसरी ओर नये चिन्तन के लिए सम्भावना खड़ी होती हैं। अब तक शास्त्रों की मान्यताओं को विश्वसनीय बनाने में बुद्धि एवं तर्क का प्रयोग किया गया, अब स्वयं निरपेक्ष बुद्धि को ही अधिकाधिक स्पष्ट एवं विश्वसनीय बनाने की आवश्यकता ।
जब हम बुद्धि को अधिकाधिक विश्वसनीय बनाने की बात करते हैं, तो हमें उसके जो ज्ञान स्रोत हैं तो उनकी सीमाओं की ओर भी ध्यान देना चाहिए। यह ठीक है कि जो बुद्धि-बाह्य है, वह वास्तविक दर्शन नहीं है, किन्तु प्राचीन काल में उसके बहुत ही सीमित थे । इसका अर्थ यह नहीं है कि सामान्य अनुभव के बाहर कोई तय नहीं है किन्तु उसे पौराणिक वृत्तान्त नहीं होना चाहिए । और उसे सिद्ध करने का भी तत्व पर्याप्त नहीं है । कहना पड़ेगा कि ज्ञान की उत्पत्ति की सीमायें हैं । हमारे अनुभव इंद्रियाधीन हैं । इन्द्रियों की शक्ति और संख्या दोनों ही बहुत
परिसंवाद - ३
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