Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
सर्वज्ञातृत्व एवं सर्वशक्तिमत्ता आदि के भाव सन्निविष्ट किए जाते हैं, वे इनमें अनुपस्थित हैं। सैद्धान्तिक दृष्टिकोण से सांखय और योग समानतन्त्र हैं और इसलिए दोनों में तत्त्व विचार विषयक समानता है और होनी भी चाहिए। तब यदि सांख्य को ईश्वर की अवश्यकता नहीं हुई तो फिर योग को उसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? यदि व्यावहारिक तोष के लिए उसकी आवश्यकता पड़ी तो गड़े। दार्शनिक दृष्टि से तो सांख्य-योग के दर्शन के ढःचे ये उसको आवश्यकता नगण्य-सी है। इसी से कुछ विचारकों का यह संशय कि योग में ईश्वर का विचार प्रक्षिप्त अंश है, निराधार नहीं कहा जा सकता है । यह उसी प्रकार है जैसे ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका में ईश्वर का समावेश नहीं मिलता है। कि तु सोलहवीं सदी में आकर विज्ञानभिक्षु ने अपने सांख्यप्रवचनभाष्य में सांख्य को भो वेदान्त का एकेश्वरवादी चोगा पहना दिया।
अद्वैतवेदान्त के दर्शन में तत्त्व तो एक मात्र ब्रह्म ही है। माया में प्रतिबिम्बित जो ईश्वर है उसकी कोई पारमार्थिक सत्यता नहीं है, इसलिए यह ईश्वर ईश्वरवादियों के ईश्वर के समान तत्त्वमीमांसा की कोई परम सत्ता नहीं है। वस्तुतः ईश्वर के इसी रूप से खीझ कर माध्वों ने शंकर को प्रच्छन्न-बौद्ध तक कह डाला है।
न्याय ने पीछे चल कर ईश्वर का समावेश किया और उदयन ने उसकी स्थापना के लिए अनेक युक्तियाँ दी। किन्तु यह स्वयं उन्हीं की उक्ति से स्पष्ट है कि उन्होंने उसे केवल अपनी प्रतिभा के बल से स्थापित किया है :
ऐश्वर्यमदमत्तोऽसि मामवज्ञाय वर्तसे ।
पुनबौद्ध समायाते ममाधीना तव स्थितिः॥ अपरञ्च, न्याय वैशेषिक ने पदार्थों का जैसा निरूपण किया है और विश्व रचना की जो प्रणाली अपनाई है, उसमें ईश्वर की सर्वशक्तिमत्ता आदि प्रमाणित नहीं होती है । नित्य परमाणुओं, अनेक जीवों और कर्मफल के सहारे संचालित संसार का वह केवल अध्यक्ष होता है। इससे उसकी सर्वशक्तिमत्ता बद्ध होकर उसके ऐश्वर्य में बाधक होती है।
इस प्रकार जब ईश्वरवाद ही भारतीय दर्शन का कोई मूल परिचायक घटक नहीं है तो उसके आधार पर भारत के दार्शनिक प्रस्थानों का वर्गीकरण कहाँ तक तर्क संगत कहा जा सकता है ?
परिसंवाद-३
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