Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय दर्शनों के वर्गीकरण से सम्बन्धित प्रश्नों के उत्तर १६१ यदि यही बातें जो भाष्य ग्रन्थों में कहीं गयी हैं वे सूत्र और सूत्रकार का उल्लेख किये बिना कहीं जाय तो वही कथन भारत का स्वतन्त्र चिन्तन कहा जाता । इस लिए इस आक्षेप में कोई औचित्य नहीं प्रतीत होता है।
७-यह सत्य है कि भारतीय दर्शनों में मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य नि:श्रेयस, निर्वाण, मोक्ष आदि माना गया है और वर्तमान में दर्शन के नाम पर जिन ग्रन्थों का अध्ययन होता है वे स्पष्ट रूप से मनुष्य की ऐहिक समस्याओं का समाधन नहीं प्रस्तुत करते। इसलिए ऐसा लगता है कि मनुष्य के जीवन की समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने में अक्षम होने के कारण पलायनवादी हो गये हैं। किन्तु विचार करने पर यह आक्षेप उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि निःश्रेयस
और निर्वाण आदि का लक्ष्य मानव जीवन के जागतिक समस्याओं के समाधान का एक अन्यतम प्रकार है। कहने का आशय यह है कि मनुष्य के सामने यदि सांस्कृतिक उत्कर्ष ही लक्ष्य रूप में प्रस्तुत होता है तो उसकी प्राप्ति के लिए वह अविवेक पूर्ण रूप से इतना आशक्त होता है कि उससे उसे दूसरे के सुख-सुविधा की कोई चिन्ता नहीं रहती। जिसके फल स्वरूप मनुष्यों में संघर्ष की भावना बढ़ती है। और यह सुन्दर संसार समाज के लिए अत्यन्त सुखमय हो जाता है निःश्रेयस को लक्षण मानने पर मनुष्य की दृष्टि संसारिक उत्कर्ष और निःश्रेयस दोनों में विभक्त हो जाती है। इसलिए सांसारिक उत्कर्ष के चिन्तन में उसका सन्तुलन बना रहता है। और उसके समाज के लिए अभिशाप नहीं बन पाता है।
दूसरी बात यह है कि सभी भारतीय दर्शन मनुष्य को दुःख से मुक्त करना अपना उद्देश्य मानते हैं। दुःखों में मनुष्य के वर्तमान दुःख का अन्त है जिनसे तत्काल मुक्ति के लिए लौकिक साधनों की अपेक्षा होती है। उन लौकिक साधनों के लिए मनुष्य को प्रयत्नशील होने की प्रेरणा का संकेत दर्शनों से प्राप्त होता है। क्योंकि वर्तमान दुःख से छुटकारा पाने का साधन आयत्त किये बिना सभी दुःखों से मुक्त करने का दार्शनिक लक्ष्य सम्भव नहीं हो सकता।
तीसरी बात यह है कि हमारे देश का धर्मशास्त्र जो राजशास्त्र, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र भी है और ये हमारे दर्शनों के अंग हैं। अतः उनके अध्ययन के साथ ही दर्शन का अध्ययन पूरा होता है। इधर सैकड़ों वर्षों से दर्शनों का अध्ययन धर्मशास्त्र के अध्ययन के बिना पूरा माना जाने लगा है। इसीलिए भारतीय दर्शनों के सम्बन्ध में पलायनवादिता के अर्थ का अवसर प्राप्त हुआ है। पूर्वकाल के
परिसवाद-३
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