Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं ७-भारतीय दर्शन का वर्गीकरण आपको अपने समुचित दार्शनिक मार्ग से च्युत करने के लिए एक महान विघ्न के रूप में उपस्थित हो रहा है। आप वर्गीकरण के दुःस्वप्न को छोड़कर किसी एक भारतीय दर्शन को लेकर उसका चिंतन तथा प्रायोगिक परीक्षण में सतत् संलग्न हो जाएं। इसी में श्रेय है। किसी भी भारतीय दर्शन में, जहाँ लक चिंतन हो चुका है, उसका सावधानी से परीक्षण प्रयोग द्वारा तथा तर्क द्वारा करें। उसकी हेयता तथा ‘उपादेयता सिद्ध हो जाएगी। इसके बाद वह दार्शनिक सिद्धान्त, यदि आपको हेय प्रतीत होता हो तो उसको छोड़ दें और दूसरे दार्शनिक सिद्धान्तों का परीक्षण कीजिए। यह प्रकार अच्छा होगा। वर्गीकरण के व्यर्थ प्रयास में मत पड़िए।
८--भारतीय दर्शनों में तीन तरह की कथा ( वाद) लिखित है-वाद, जल्प और वितण्डा।
वाद और जल्प में आगम और तर्क दोनों चलता है। वितण्डा में केवल तर्क चलता है। दार्शनिक चिंतन के लिए इन तीनों के सिवाय अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं है। भारतीय चिंतन अति प्राचीन और अपने में पर्याप्त तथा समाप्त है। उसमें सिद्धान्ततः कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है और कोई नया चिंतन नहीं हो सकता। भारतीय दर्शन आधुनिक जीवन समस्याओं से विमुख नहीं है। आधुनिक जीवन समस्याओं के--राजशास्त्र, धर्मशास्त्र, कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद आदि पर्याप्त शास्त्र बने हैं। .
क) शून्यवाद, विज्ञानवाद, ब्रह्माद्वैतवाद, शिवाद्वैतवाद विशिष्टाद्वैतवाद ये सभी सिद्धान्त विलक्षण है । अतः एक साथ वर्गीकरण नहीं हो सकता।
(ख) न्याय', पंचावयव वाक्य के प्रयोग को कहते हैं। अथवा मीमांसा दर्शन में न्याय अधिकरण निर्णीत सिद्धान्त को कहते हैं। अतः न्याय-वैशेषिक इत्यादि अपने विशेषों की प्रधानता से पृथक् पृथक् शास्त्र हैं।
(ग) योग दर्शन भी अपनी विशेषताओं से पृथक शास्त्र ही है। बौद्ध, जैन, तांत्रिक --आदि अपने-अपने विषयों की प्रधानता से पृथक् शास्त्र ही हैं।
(घ) इसमें कहा गया वर्गीकरण भी अध्ययन-अध्यापन की दृष्टि से अच्छा नहीं है।
. परिसंवाद-३
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