Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
उनका
का नेतृत्व इस युग का सबसे असाधारण प्रकार का नेतृत्व था । नेतृत्व केवल राजीतिक नेतृत्व नहीं था । बीसवीं सदी में और भी अनेक क्रान्तिकारी और राजनीतिक नेता हुये थे । बड़े-बड़े प्रतिभावान और प्रभाववान असाधारण राजनेता हो चुके हैं, एशिया में, यूरोप में तथा अन्यत्र | किन्तु गांधी सबसे अलग हैं क्योंकि उनका नेतृत्व मूलतः नैतिक नेतृत्व था। समाज को नैतिक नेतृत्व देने का काम राजनीतिक नेता आमतौर पर नहीं करते । नैतिक क्षेत्र में दिशा देने का काम साधारणतया धार्मिक या आध्यात्मिक क्षेत्र के महापुरुषों का होता है लेकिन गांधीजी का विश्वास था कि राजनीति को नैतिक आधार देना अत्यन्त आवश्यक हैं । उनके अनुसार नैतिकताविहीन राजनीति बहुत अनिष्टकारक होती है ।
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यह प्रश्न आज के समाजों के लिए विचारणीय है कि जब धर्म और परम्परा का नैतिक मूल्य एवं महत्त्व घटता जा रहा है और निरन्तर तर्कसंगतता औपचारिकता, कर्मचारीतंत्र तथा विधि-विधानों का दायरा बढ़ता जा रहा है तो समाज को नैतिक दिशा-निर्देश कहाँ से मिलेगा ? समाज में मूल्यों का पदक्रम कहाँ से निर्धारित होगा ? अन्तिम या सर्वोच्च मूल्य कौन माने जायेगें ? प्रसिद्ध जर्मन समाजशास्त्री मक्सवेबर ने वर्तमान शताब्दी के प्रारम्भ के दशकों में इस रुझान का उल्लेख किया था कि आधुनिक समाज के विकास के साथ सर्वोच्च अन्तिम एवं उदात्त मानवीय मूल्यों का दायरा सार्वजनिक जीवन में सिमटता जाता है, और शनैः शनैः ऐसे मूल्य या तो आध्यात्मिक रहस्य के गह्वरों में छिपने लगते हैं या व्यक्तियों के एकदम निजी जीवन में सिकुड़ जाते हैं । इसे आधुनिकीकरण के सांस्कृतिक परिणाम के रूप में देखा जा सकता है । इसके विपरीत परम्परागत समाजों में धार्मिक प्रेरणाओं का इतना विस्तार होता था कि वे समाज के सारे जीवन को दिशा प्रदान करते थे । समाज के मूल्यों और आदर्शों का सृजन भी धार्मिक क्षेत्र में ही होता था । लेकिन प्रायः राजनीति अर्थव्यवस्था, धर्म परिवार आदि क्षेत्रों को विशेषीकृत माना जाने लगा है । अतएव धर्म की वह व्यापकता नहीं रह गई है जो पहले थी । धर्म अ सारे समाज के लिए बुनियादी आदर्श प्रस्तुत नहीं कर पाता । लौकिकीकरण की प्रक्रिया तीव्रतर होती जा रही है और लौकिकीकरण को आधुनिकीकरण की एक अनिवार्य सहायक क्रिया के रूप में देखा जाता है । इतना ही नहीं अर्थनीति और विशेषकर राजनीति जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रकार प्रविष्ट होती जा रही हैं कि वह प्रभावकारिता तथा वर्चस्व की दृष्टि से वही स्थान ले चुकी है जो स्थान कभी धर्म का था ।
परिसंवाद - ३
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