Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं को अनेक पर्यायों से जाना जाता है. धर्म, ऋत्, शाश्वत्. यथार्थ, अन्तिम तत्त्व, पूर्णत्व, विशुद्ध, अनादि, अनन्त आदि। गांधीजी प्रायः सत्य को ईश्वर कहते थे। उनका कहना था कि चूंकि सत्य पूर्ण अन्तिम तथा शाश्वत सिद्धान्त का नाम है इसीलिए वह ईश्वर है। वह कहते थे कि मैं ईश्वर की आराधना केवल सत्य के रूप में करता हूँ, अन्य किसी रूप में नहीं। उनके अनुसार सत्य की अनवरत खोज मानव जीवन का परम् लक्ष्य है। उससे बड़ा कोई दूसरा लक्ष्य नहीं हो सकता। प्राचीन भारतीय परम्परा में मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थों की जो व्याख्या की गयी है उसमें चतुर्थ पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष को सर्वोच्च माना गया है। धर्म, अर्थ, तथा काम का महत्त्व अन्तिम रूप में मोक्ष के संदर्भ में ही है। किन्तु गांधीजी ने सत्य को मोक्ष से भी ऊपर रखा है। उनका कहना था कि, "मैं मोक्ष का इच्छुक हूँ, किन्तु यदि मोक्ष का सत्य और अहिंसा से विरोध होगा तो मुझे मोक्ष नहीं चाहिए।"
___ सत्य की उपर्युक्त अवधारणा उसे आध्यात्मिक धरातल पर ले जाती हैं क्योंकि सत्य की तमाम वशेषताएँ उसे अनिर्वचनीयता प्रदान करती हैं। पूर्ण, शाश्वत् एवं अन्तिम तत्त्व के रूप में सत्य की कौन व्याख्या कर सकता है ? कौन उसे जान सकता है ? इसीलिए गांधीजी के आलोचक कहते हैं कि उनका सत्य रहस्यात्मक था। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों एवं धार्मिक तत्त्वचिन्तकों की तरह वायवीय था। लेकिन ऐसा कहना गांधी की सत्य की अवधारणा के केवल एक पहलू को पकड़ना है। उनका सत्य जहाँ आध्यात्मिक धरातल पर अव्यक्त तथा पूर्ण है वहीं वह मानवीय जगत में नाना रूपों में व्यक्त है और उसका अस्तित्व सापेक्षिक है।
गांधीजी ने व्यावहारिक दृष्टि से सत्य के सापेक्षिक स्वार्थों को महत्त्व दिया था। वे जानते थे कि सत्य को उसके पूर्ण रूप में न तो देखा जा सकता है
और न उससे मानवीय जगत का व्यवहार सम्पन्न हो सकता है। मनुष्य का सामाजिक जगत परिसीमित है, परिपूर्ण नहीं। इस भाँति गांधी सत्य के पूर्ण और सापेक्षिक दो प्रधान रूपों में भेद करते थे। उनका कहना था कि पूर्ण सत्य का ज्ञाता कोई नहीं है। हम सब आंशिक सत्य को जानते हैं। मनुष्य सत्य को जिस प्रकार और जिस रूप में देखता है उसी का वह अनुसरण कर सकता है। पूर्ण सत्य को वह ईश्वर का पर्याय मानते थे, अतः सत्य रूपी ईश्वर को प्राप्त करना साधारण बात नही है। उसे प्राप्त करने का प्रयास मात्र हो सकता है। वह प्रयास कितना सफल होगा, कोई नहीं जानता। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति यह अवश्य कर सकता है कि वह
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org