Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
सत्य और अहिंसा की अवधारणा :
१०॥
अथवा आपसी सम्बन्धों में अहिंसा का प्रयोग, उदाहरणार्थ परिवार या पड़ोस के के सम्बन्धों में अहिंसक आचरण । इन स्तरों की चर्चा करने के सिलसिले में गांधीजी ने यह अवश्य माना था कि अहिंसा के प्रयोग का सबसे अच्छा क्षेत्र परिवार या आमने-सामने के समूह हैं। इसीलिए वह कहते थे कि अहिंसा का अनुसरण. छोटे समुदायों में अधिक आसानी से हो सकता है। उनकी दृष्टि में एक सच्चे और स्थायी अहिंसक समाज का आधार स्वैच्छिक सहयोग पर आश्रित ग्रामीण या लघु समुदाय हो सकते हैं लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उनकी दृष्टि में आधुनिक वृहदाकार राष्ट्र-राज्यों या अन्तर्राष्ट्रीय समुदायों में अहिंसा अव्यवहार्य है। इसके विपरीत गांधी ने काफी विस्तार से बताया है कि राष्ट्र के अन्दर तथा राष्ट्र के बीच किस प्रकार अहिंसा का अनुगमन करके शान्ति, न्याय और समता की स्थापना की जा सकती है। इसी संदर्भ में उनका यह भी कहना था कि अहिंसा कभी शक्ति या सत्ता पर कब्जा' नहीं कर सकती, किन्तु उससे अधिक बड़ा काम कर सकती है । वह है शक्ति अथवा सत्ता को प्रभावकारी ढंग से नियन्त्रित तथा निर्देशित करना।
गांधीजी दृष्टि में अहिंसा का जितना महत्त्व एक सैद्धान्तिक धर्म के रूप में है उतना ही व्यवहारिक नीति-धर्म के रूप में भी है। सैद्धान्तिक धर्म के रूप में उनके लिए अहिंसा जीवन-धर्म था। वे कहते थे, “अहिंसा मेरे जीवन की सांस है।" वह किसी भी लौकिक या लोकोत्तर वस्तू से अधिक अहिंसा पर श्रद्धा रखते थे । वे अक्सर कहा करते थे कि यदि अहिंसा के अलावा किसी दूसरी चीज से मेरा लगाव है तो वह सत्य है। साथ ही वह यह भी कहते थे कि मेरे लिए सत्य और अहिंसा अभिन्न है। इस प्रकार अहिंसा उनकी मूलभत निष्ठा का आधार थीं। उनके अनुसार जो वस्तु निष्ठा और श्रद्धा के योग्य होता है वह सर्वव्यापी और सार्वकालिक होती है। इस कारण वह अहिंसा को मनुष्य के जीवन को इस पहलू में देखते थे और प्रतिष्ठित करते थे। उनके लिए अहिंसा वह विश्वास था जिस पर सारा जीवन टिकता है । अहिंसा उनका आदर्श भी था और विश्वास भी। आदर्श एवं विश्वास रूपी अहिंसा के सिद्धान्त को वे जब व्यवहार जगत में उतारते थे तो वह नीतिधर्म बन जाता था, नीति का निर्धारक पैमाना बन जाता था। उन्होंने सामाजिक और राजनैतिक जीवन में अहिंसा का आजीवन यथासम्भव प्रयोग किया। राजनीति में उनका एक मात्र उपकरण अहिंसा ही था। उनकी धारणा थी कि हिंसा की अपेक्षा अहिंसा की शक्ति कहीं अधिक है। वे मानते थे कि अहिंसक संघर्ष में पराजय का प्रश्न ही नहीं उठता। राजनीति के क्षेत्र में हिसा को पूर्णतया स्वीकार करके उन्होंने अहिंसा को प्रतिष्ठित किया। वे न तो कौटिल्य,
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org