Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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'सत्य, अहिंसा और उनके प्रयोग' संगोष्ठी का संक्षिप्त विवरण
सहकारिता पर आधृत राज्य विहीनसमाज, न्यासिता की भावना से परिपूर्ण व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन गांधीजी के जीवन दर्शन के मुख्य तत्त्व हैं ।
श्रमविद्यासंकाय के अध्यक्ष प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय ने गांधीजी को शास्त्रीय अर्थ में धार्मिक नहीं मानते हुए कहा -- गांधीजी सिर्फ नैतिक थे । उन्होंने नीति से भिन्न धर्म को नहीं माना। इसलिए वह धर्मों की नैतिक एकता के अन्वेषक थे । वह परधर्म की रक्षा को स्वधर्म पालन में आवश्यक मानते थे । शास्त्रवादी धर्म के विपरीत वह श्रद्धानुरोधी थे । श्रद्धा में नम्रता होती हैं । नम्रता का अर्थ है समर्पण | समर्पण बुद्धि से अनेकता में एकता का भान होता है, यह भक्ति का परिचायक है । इस श्रद्धा के आवश्यक एवं निर्देशक तत्त्व सत्य एवं अहिंसा हैं। वह कहते हैं कि सत्य और अहिंसा से ही उत्कृष्ट धर्म का बोध होता है । वह, ईश्वरवादी थे । सत्याग्रह उनका मूलमन्त्र था । सत्याग्रह ही परमेश्वर के साक्षात्कार का मार्ग है ! सत्य के लिए अहिंसा अनिवार्य है । अहिंसा का प्रयोग व्यक्तिगत ही नहीं समूह गत है । निराग्रह वृत्ति के द्वारा अहिंसक व्यक्ति सत्य का आकलन कर कर्म पर प्रवृत्त होता है। गांधीजी इस अर्थ में समस्त संसार को अद्वैतमुखी मान कर ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद की स्थापना करते हैं ।
एक परम्परावादी विद्वान् आचार्य श्री रामप्रसाद त्रिपाठी - ( वेदवेदांग संकाय के अध्यक्ष ) ने कहा--गांधीजी के उपदेश भारतीय परम्परा में आगत व्रतों की भांति हैं । सत्य का नैतिक विवेचन गांधी ने किया है। उन्होंने सत्य के साधन एवं साध्य स्वरूप का आकलन करते हुए कहा- सत्य के कथन में कठोरता होती है पर जैसे ईसा ने धूर्तों को जानते हुए दया याचना की, उसी प्रकार सत्य का प्रयोग शिष्टतापूर्वक होना चाहिए। हमारी परम्परा भी यही बतलाती है । परानुग्रहेच्छा से गांधीजी ने सत्याचरण को बतलाते हुए ईश्वर तत्त्व के रूप में सत्य को माना है । सत्य तभी सत्य बन सकता है जब कि उसके प्रयोग में हिंसा का योगदान न हो । कहा भी है--'" सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा, दयान्वितं चानृतमेव सत्यम्” ।
इसी प्रकार एक अन्य परम्परावादी विद्वान आचार्य पं० विश्वनाथ शास्त्री दातार ( प्राचीनभारतीयराजशास्त्र और अर्थशास्त्र विभाग ) ने कहा- दार्शनिकों अहिंसादि को महाव्रत कहा है पर समाज यदि अहिंसात्मक पहलू से न चलने योग्य हो, तो भारतीय राजनीति हिंसा को भी वैध मानती है । दण्ड विधान से दौरात्म्य समाज में टिक नहीं पाता । काशीराज दिवोदास को पुरुषार्थं सिद्धि के
परिसंवाद - ३
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