Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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सत्य और अहिंसा की अवधारणा :
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अतएव गांधी की विशेष नैतिक और सामाजिक दृष्टि के सन्दर्भ में ही सत्य और अहिंसा की अवधारणाओं के अर्थ को समझना ठीक होगा।
गांधीजी की दृष्टि में मानव जीवन के हर पहलू में विचार और व्यवहार की आन्तरिक कसौटी सत्य है । जीवन का व्यक्तिगत या सामूहिक कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसे सत्य, नैतिक आधार प्रदान न करें। उनके अनुसार नीतिशास्त्र का आधार ही सत्य हैं। इसके साथ ही सत्तामीमांसा तथा ज्ञानमीमांसा दोनों दृष्टियों से भी गांधी की सत्य की अवधारणा गांधी विचार प्रक्रिया में सबसे केन्द्रीय अवधारणा है। क्योंकि उनके लिए सत्य स्वयं सर्वोच्च सत्ता है और वही ज्ञानतत्त्व भी हैं । सत्य के रूप में अनेक हैं। वह ज्ञानगम्य भी है ज्ञानातीत भी, उसका जाग्रत आनुभविक अस्तित्व भी है और अनुभवातीत अस्तित्व भी। चूँकि मनुष्य का अनुभवक्षेत्र और ज्ञानक्षेत्र सर्वदा सीमित होता है । इसीलिए सत्य का ज्ञानगम्य या अनुभवगम्य स्वरूप भी सीमित होता है। किन्तु सत्य केवल मानव अनुभव सीमाओं में ही नहीं बंधता इसलिए वह अनभवातीत भी है। गांधीजी कहते थे कि सत्य का अर्थ हमारी ज्ञान की परिधि के अन्दर वस्तुओं के अस्तित्व से भी है और उस परिधि के बाहर की अज्ञात स्थितियों से भी है। वह सत्य' को उसके विविधात्मक रूपों में देखते थे। सत्य के बहु-आयामी स्वरूप की व्याख्या के लिए उन्हें जैन-दर्शन में अनेकान्तवाद या सप्तभंगी का प्रत्यय बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ। अनेकान्तवादी दृष्टि से सत्य के अनेक आयाम होते हैं,और हमें सर्वदा इन विविध आयामों की सहवर्तिता को ध्यान में रखना चाहिए। गांधी भी मानते थे कि सत्य कभी एकांगी नहीं होता । सत्य के अनेक पहलू होते हैं। इस प्रकार गांधी के सत्य की अवधारणा बहुत व्यापक है। यदि उसका एक छोर व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन से जुड़ा है तो उसका दूसरा छोर देशकाल की परिधियों से बाहर लोकातीत, अनुभवातीत क्षेत्र से सम्बद्ध है।
गांधीजी के चिन्तन में सत्य का स्थान सर्वोपरि है। सत्य अन्तिम कसौटी. है। वह कहते थे कि सत्य के अतिरिक्त किसी भी वस्तु का वास्तविक अस्तित्व नहीं है । सत्य के अस्तित्व के अलावा अन्य सब अस्तित्व "अवास्तविक" है। अवास्तविक इस अर्थ में कि जगत में कोई वस्तु नित्य या अपरिवर्तनशील नहीं है, सभी घटनायें और रचनाएँ अनित्य है, परिवर्तनशील है। गांधी के अनुसार पूर्णता केवल सत्य में है और सत्य शाश्वत् है। उनकी दृष्टि में सत्य को उसकी पूर्णता में कोई नहीं जान सकता। उसके अनेकानेक रूप हैं। इसीलिए उन्होंने बताया कि सत्य
परिसंवाद-३
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