Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय चिन्तन की परम्परा में नवीन सम्भावनाएं
का खोजी धूल के कणों से भी अधिक विनम्र होता है। दुनिया धूल को पाँवो से रौंदती है, किन्तु सत्यान्वेषी व्यक्ति इतना विनम्र होता है कि धूल भी उसे कुचल सकती है। अपने अहं का विलय करने वाला मनुष्य ही सत्य का झलक पा सकता है। अहं की भावना का शमन किये विना विनम्रता का आविभाव नहीं हो सकता है और न सच्चे सामाजिक शील का विकास हो सकता है। गांधी सामाजिक जीवन को शील. सहिष्णुता तथा सद्भावना से सुवासित करके उसे श्रेष्ठ और मानवोचित बनाना चाहते थे। उनकी दृष्टि में यह तभी सम्भव हो सकता है जबकि मनुष्य सत्य का पालन करें। उनका कहना था कि सत्य का खोजी न केवल विनम्र और शीलवान होगा, बल्कि वह जीवन के द्वैतों से भी मुक्ति पा सकता है। आसक्ति और विरक्ति, आकर्षण और विकर्षण और सख और दुःख के द्वैत से ऊपर उठकर व्यक्ति पूर्ण मुक्ति का अनुभव कर सकता है। अत: गांधी के लिए सत्य की अवधारणा व्यक्ति और समाज दोनों के नैतिक उन्नयन का आधार है। वे समाज के उन्नयन को मानवीय गुणों की श्रेष्ठता के उत्तरोतर विकास में देखते थे। और वह इस विकास का एकमात्र आधार सत्य की अवधारणा को मानते थे।
.. समाज शास्त्रीय दृष्टि से गांधीजी की सत्य की अवधारणा के मूल्य को समझने का प्रयास बहुत कम किये गये हैं। प्रायः यह धारणा विद्यमान है कि गांधीजी ऐसे मनुष्यों के ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते थे जो सात्विक प्रवृत्ति के हों। साधु स्वभाव के अनासक्त लोग हों। समाज वैज्ञानिक कहते हैं कि मनुष्य की एषणाओं, स्वार्थों तथा जीवन की विकट समस्याओं के संदर्भ में सात्विक वृत्ति के साधु स्वभाव वाले व्यक्तियों की संख्या इतनी कम होती है कि वह समाज के औसत सदस्य नहीं होते। समाज शास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में मनुष्य का दैनन्दिन जीवन संघर्षों, तनावों, विग्रहों, स्वाथों तथा असन्तोषों के बीच गुजरता है और क्रोध, ईर्ष्या, घृणा, हिंसा तथा द्वेष जैसी मनोवृत्तियों की मनुष्यों के जीवन में बहुत बड़ी भूमिका होती है। समाज वैज्ञानिकों का यह विश्लेषण अपनी जगह पर सही है। मानव समाज से न तो संघर्षों, तनावों और विग्रहों आदि सामाजिक समस्याओं का उन्मूलन हो पाया है और न मनुष्य के मन से क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि भावनाओं का उच्छेद हुआ है। किन्तु यह भी स्मरणीय है कि मानव समाज ने सर्वदा इन समस्याओं तथा भावनाओं पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य का समाज सम्भवतः पशु समाज से अधिक भिन्न न होता। अतः गांधी के विचारों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना अतर्कसंगत होगा कि वे सन्त साधु प्रवृत्ति के अनासक्त मनुष्यों के काल्पनिक समाज
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org