Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
भारतीय चिन्तन का परम्परा में नवीन सम्भावनाए
सम्भव है, उससे इस युग की जनता को सन्तोष नहीं हो सकता। युग की पुकार को भुलाया नहीं जा सकता। पूंजीवावी व्यवस्था को हिंसा से ग्रसित व्यवस्था समझा जा सकता है। पर जनहित में संचालित शोषणविहीन राष्ट्रीकृत उद्योगों को भी हिंसा पर आश्रित समझना उचित नहीं होगा। औद्योगिक लोकतन्त्र की व्यवस्था द्वारा राष्ट्रीकृत उद्योगों के प्रबन्ध में श्रमिकों को हिस्सेदार बनाया जा सकता है।
वास्तव में गांधीजो वैयक्तिक प्रणाली को हिंसात्मक समझते थे और कहते थे कि 'यदि पूंजी शक्ति है तो श्रम भी शक्ति है. श्रम पूंजी से श्रेष्ठ है अतः पूंजी को श्रम का नौकर होना चाहिए, न कि उसका मालिक ।' वे यह भी कहते थे कि समाज के बहुत से लोगों के सहयोग से जमा किये धन को मुख्यत: व्यक्तिगत लाभ के लिए इस्तेमाल करने का किसी को कोई अधिकार नहीं है। इन कारणों में 'मिल मालिक अपनी इच्छा से मजदूर को 'उद्योगों का वास्तविक मालिक समझें ।' सन् १९४७ में तो उन्होंने घोषित किया कि 'मैं उन सभी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण चाहूँगा, जिनमें बहुत सारे लोग काम करते हैं। उनकी कुशल और अकुशल मेहनत से जो कुछ उत्पन्न होगा, उस पर राज्य द्वारा उन्हीं मजदूरों का स्वामित्व होगा।'
फिर भी ट्रस्टीशिप की धारणा ही आर्थिक व्यवस्था में गांधीजी की सबसे बड़ी देन थी। उनकी दृढ़ धारणा थी कि कोई, आर्थिक व्यवस्था उस समय तक ठीक तौर पर नहीं चल सकती और पूरी तौर पर समाजोपयोगी नहीं हो सकती, जब तक उससे सम्बन्धित सभी लोग ट्रस्टीशिप की भावना से काम करने को तैयार न हों। वे तो कहते थे कि हमें अपने शरीर को 'मानव की सेवा के निमित्त अपने को सौंपी हुई धरोहर समझना चाहिए' और पूछते थे कि यदि समाज का प्रत्येक व्यक्ति अपनी शक्तियों का प्रयोग वैयक्तिक स्वार्थ के लिए नहीं बल्कि सब के कल्याण के लिए करे तो क्या उससे समाज की सुख समृद्धि में बृद्धि नहीं होगी ?'
गांधीजी सहयोगिक प्रणाली को अहिंसात्मक बनाने के पक्ष में थे, और चाहते थे कि 'जहां तक सम्भव हो गांव समाज के सब काम सहयोग के आधार पर किये जायें, तथा सहकारी खेती प्रोत्साहित की जाय, स्वामियों द्वारा जमीनें सहकारिता में धारण की जायें और सहकारिता में ही जोती, बोयी जायें ..मालिक सहयोग में श्रम करें, और सहयोग में पूंजी, उपकरण, मवेशी, बीज आदि के मालिक हों।' वे पूछते थे कि 'गांव की खेती सौ टुकड़ों में बंट जाय, उसकी बजाय क्या यह अच्छा नहीं होगा कि
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org