Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
गांधीजी का नीतिधर्म को सामुदायिक गुण भी कहते हैं, तो एक विरोधाभास सा लगने लगता है। इसे दूर करने के लिए वे जीवन की अखण्डता के सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हैं, जिस पर उनका गहरा विश्वास है।
तत्त्व की दृष्टि से गांधीजी अपने को अद्वैतवादी कहते हैं। उनका अद्वैतवाद जीवन की अखण्डता के विश्वास से बंधा हुआ है। उनका अद्वैत जगत् के मिथ्यात्व के आधार पर नहीं, प्रत्युत सत्य जगत् की अखण्डता के आधार पर निर्भर है। अखण्डता के इस अनुबन्ध में गांधी जी व्यक्ति पर अहिंसात्मक समाज रचना का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व सौंपते हैं। उनके अनुसार व्यक्ति जिन धर्मों से घिरा है, उसके उच्छेद के बिना उसका मोक्ष असम्भव है। व्यक्ति अपने कन्धे पर समस्त संसार का बोझ लेकर घूमता है, उसके पुण्य या पाप का भागीदार एक नहीं, अपितु समस्त हैं। गांधी जी कहते हैं, उसके बिना पिण्ड-ब्रह्माण्ड की समानता का सिद्धान्त अर्थहीन हो जाता है। कर्म-ज्ञान-समुच्चयवाद
गांधीजी धर्म या सत्य की खोज के लिए अहिंसा को महत्त्वपूर्ण माध्यम स्वीकार करते हैं। इसके लिए गांधीजी अहिंसा से तीन तथ्य स्पष्ट करना चाहते हैं।
(१) जीवन में एक प्रवहमान व्यापक सत्य है, जो अखण्ड है, उसका साक्षात्कार अहिंसा से होता है। व्यवहार में अहिंसा के आचरण से ही प्राणियों की मूलभूत एकता को जाना जा सकता है। इस स्थिति में अहिंसा और सत्य एक दूसरे से ओत-प्रोत रहते हैं। यहाँ व्यवहार और परमार्थ को एक दूसरे से अलग करना सम्भव नहीं है।
(२) अहिंसा का स्वभाव उसकी सक्रियता एवं गतिशीलता है। गांधीजी कहते हैं--धर्म अपूर्ण है इसलिए वह सदा विकसित होता रहेगा, बार-बार उसकी नयी व्याख्यायें की जायेंगी। इस प्रकार की विकसनशीलता के कारण ही सत्य या ईश्वर की ओर प्रगति करना सम्भव है। गांधीजी सत्य शोध के प्रसंग में भूलों की सम्भावना को स्वीकार करते हैं। उस मूल से उबरने के लिए अहिंसा की सक्रियता को बहुत ही कारगर मानते हैं। मनुष्य अपने ज्ञान एवं अनुभव के अनुसार सत्य का पालन करे, उस सत्यपालन में यदि भूल होती है, तो अहिंसा के कारण
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org ..