Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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भारतीय चिन्तन को परम्परा में नवीन सम्भाय न एं __ अर्थात् स्त्रियों के सम्बन्ध में, हँसी में, विवाह में, जीविका के विषय में, गाय और ब्राह्मण के हित में, किसी की हिंसा के निराकरण में यदि असत्य भी बोलना पड़े तो निन्दित नहीं है।
तात्पर्य यह कि असत्य का दोष तो होगा, पर इन कार्यों से पुण्य भी होगा, जिसकी मात्रा अत्यधिक होगी। अत: उस पुण्य राशि से पाप की अत्यल्प मात्रा शान्त हो जाएगी। जैसे जाड़े से ठिठुरा हुआ पाँव आग पर रख दिया जाता है, आग की कणिका पाँव में लगती है, पर उससे किञ्चित भी कष्ट नहीं होता। एक पुराण में ऐसी कथा मिलती है कि एक बधिक ने किसी मृग को वाण से मारा; बाण लगने से मृग दौड़ता हुआ एक ऋषि के आश्रम में छिप गया, बधिक आया ऋषि को प्रणाम पूर्वक पूछा कि महाराज! इधर आपके आश्रम में एक मृग आया है आप कृपया बता दें कि वह कहाँ है ? ऋषि ने उत्तर दिया कि-ऐ बधिक ! ।
___ या पश्यति न सा ब्रूते, या ब्रूते सा न पश्यति ।
अर्थात् जो व्यक्ति देखता है वह तो बोलने में समर्थ नहीं है, तथा जो जिह्वा बोलती है, वह देख नहीं सकती। इस प्रकार हिंसा का बचाव करते हुये उन्होंने सत्य' का पालन किया। कभी-कभी गांधी जी भी अपने अन्तरङ्ग व्यक्तियों से कह देते थे कि आप इस बात को न पूछे, इस विषय में हम कुछ नहीं कहेंगे। यह भी सत्य का पालन ही है।
__सत्यनारायण की कथा स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड में कही जाती है, उसमें नारायण अर्थात् ईश्वर को सत्यरूप में याद किया गया है। वहाँ कलियुग के लिये सत्यरूपी जनार्दन ही सर्वस्व बताये गये हैं, जो गांधी जी की अविचल विश्वास भूमिका है। इस कथा में देवर्षि नारद श्रोता हैं, वैकुण्ठाधिपति भगवान वक्ता हैं। “केनोपायेन चैतेषां दुःखनाशोभवेद् ध्रुवम्" इसी उद्देश्य से नारद जी का प्रश्न है। गांधी जी भी मानवों के दुःख से संतप्त चित्त होकर ही सत्य रूपी ईश्वर की शरण लेते हैं, सत्याग्रह करते हैं। सर्वत्र व्याप्त सत्य रूपी ईश्वर ने उनकी अर्थात् उनके सत्य पक्ष की विजय घोषणा कर दी। इधर देवर्षि नारद भी प्राणियों के सन्ताप-निवारण के लिये सत्यनारायण की कथा का प्रचार तथा सत्य व्रत लेने की घोषणा करते हैं। काशीपुरी का एक ब्राह्मण उस व्रत में दीक्षित होता है, फिर लकड़ी बेचने वाला काष्ठ विक्रेता, फिर सपत्नीक राजा तथा वैश्य आदि सज्जन वृन्द इस व्रत में दीक्षा लेते हैं। आज कल इसका भारत भर में अविच्छिन्न प्रचार है। इतना ही नहीं विदेशों में भी इस कथा का श्रद्धापूर्वक प्रचार है। यहाँ
परिसंवाद-३
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