Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गांधी दर्शन-सिद्धान्त और व्यवहार प्रकार परिवार का बूढ़ा अपने नवजवान पुत्र के उदण्ड व्यवहार के विरोध में उपवास करने लगता है आदि। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गाँधीवादी अहिंसा इसी कारण बन सका कि भारतीय जनता शस्त्र के साथ ब्रिटिश साम्राज्य से लोहा लेने में अपने को अलम पा रही थीं। जो व्यक्ति या राष्ट्र शरीर और शस्त्र की दृष्टि से सबल होता है वह निर्भय रहता है. सहिष्णु और शमागील भी। किंतु जब यह भान होने लगता है कि उसकी सहिष्णुता और अधिक सर्वनाश की ओर ले जा रही है
और दुर्बल उस पर विजय प्राप्त कर अहंकारी बनता जा रहा है तो उसे लगता है कि उसकी सहिष्णुता और क्षमाशीलता के गलत अर्थ लगाये जा रहे हैं और तब उसमें आत्मसम्मान की भावना जग उठती है। फलतः, वह शस्त्र के प्रयोग के लिए अपने अर्तमन के द्वारा बाध्य कर दिया जाता है। इस आधार पर यह कहा जा सकता सकता है कि अहिंसा का मानसिक दृष्टि से सबल किंतु शारीरिक और शस्त्र की दृष्टि से दुर्बल व्यक्ति ही अपने जीवन में ढाल या शस्त्र के रूप में प्रयोग करता है। ढाल के रूप में प्रयोग करते समय उसे यह ज्ञान रहता है कि पलायन से भी उसकी रक्षा नहीं हो सकतीं, क्योंकि शस्त्र के ग्रहण सामर्थ्य से वह अपने को बचा नहीं सकता। अतः वह अहिंसा का ढाल बना लेता है। शस्त्र रूप में अहिंसा का प्रयोग करने वाला भी अपनी अक्षमता को भली भाँति समझता है कि वह अपने शत्रु के साथ शस्त्र द्वारा बराबरी करने में असमर्थ हैं।
अहिंसा के व्यवहार पक्ष पर विचार करते समय अहिंसा और दण्ड पर भी विचार करना आवश्यक लगता है। क्या कोई शासन व्यवस्था अहिंसा का प्रयोग दण्ड के रूप में कर सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक रूप में ही दिया जा सकता है। किसी भी व्यवस्था के लिए दण्ड अपरिहार्य लगता है। किसो नैतिक आधार के बिना केवल अपने स्वार्थ के लिए व्यवस्था का विरोध करने वालों को यदि दण्ड न दिया जाय तो व्यवस्था चल ही नहीं सकती! मानव मन में लोभ और स्वार्थ की भावना का जिस गति से विकास होता है प्रेम और परार्थ की भावना का उससे बहुत ही मन्द गति से । दण्ड का भय लोभी और स्वार्थी को एक सीमा से आगे बढ़ने से रोकता है। अहिंसा ऐसी स्थिति में प्रभावकारी माध्यम नहीं बन पाती। अतः सिद्धान्त रूप में अहिंसा के द्वारा दण्ड के बिना व्यवस्था की बात स्वीकार कर लेने पर भी व्यवहारिक दृष्टि से उसकी असंगति को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि व्यवस्था के लिए दण्ड अपरिहार्य लगता है।
सर्वोदय-समाज के समग्र विकास की दृष्टि से गांधीदर्शन का सर्वोदय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त जातिविहीन, वर्गहीन, रंगभेदरहित
परिसंवाद-३
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