Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
View full book text
________________
सत्य की व्याख्या
मनुष्य अपनी भूल मानने से न डरे । यह भी सत्य है, कि मनुष्य जिस सत्य को देख सकता है, वह आंशिक एवं आपेक्षिक है। गांधी जी का कहना था कि कठोर सत्य शिष्टता और नम्रता से कहे जांय लेकिन पढ़ने में तो शब्द कठोर ही होंगे, सत्यवादी होने के लिये आपको झूठे को झूठा कहना ही होगा। शायद शब्द कठोर है, लेकिन उनका प्रयोग अनिवार्य है। इस बात को गांधी जी ईसा के उदाहरण से स्पष्ट करते थे "ईसा तो धूर्तों को जानते थे, उनके वर्णन में उन्होंने झूठी विनम्रता नहीं वरती, किन्तु उनके लिये दया की याचना की।
गांधी जी ने स्वयं १९३३ ई० में कहा था सत्याग्रह का विज्ञान मुझे वैज्ञानिक अनुसंधान द्वारा प्राप्त हुआ।
गांधी जी सत्य को ईश्वर रूप में समझते थे। बात सही है, विचार किया जाय तो वेदों, स्मृतियों, पुराणों में सर्वत्र सत्त्व का महत्त्व सर्वातिशायिरूप में कहा गया है-जैसा कि वेद ने आज्ञा दी है-सत्यं वद, धर्मचर-अर्थात् मानव ! तुम सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो । यद्यपि “धर्म का आचरण करो" ऐसा कहने से ही सत्य बोलो, यह अंश गतार्थ हो जाता है, क्योंकि सत्य बोलना' धर्माचरण ही है। फिर भी ब्राह्मण-वशिष्ठ-न्याय से उसकी विशेषता बतायी गयी है। इसीलिये अन्त में सत्यमेव जयते-नानृतम्' ऐसा भी वेद का वचन मिलता है। जिससे असत्य पक्ष की अपेक्षा सत्य की विजय बताई जाती है। राजर्षि मनु से निर्मित मनुस्मृति में 'सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः' कहते हुये प्रिय सत्य बोलने का संकेत किया गया है। जिसका आशय है कि कठोर सत्य से हिंसा होती है, अत: अहिंसोत्पादक प्रिय सत्य का प्रयोग उचित है । अन्य स्मृति में मिलता है कि--'सत्यं न सत्यं खलु यत्र हिंसा दयान्वितं चानृत. मेव सत्यम्' दया से मिश्रित अनृत ( असत्य ) भी सत्य है। इसी अंश का पोषक वचन है कि
स्त्रीषु नर्मविवाहे च वृत्त्यर्थे प्राणसंकटे । गो ब्राह्मणार्थे हिंसायां नानृतं स्याज्जुगुप्सतम् ॥
(१) ह० ५।२।२५। पृ० ४१४ । (२) ह० १६।१२।३६। पृ० ३६२ । (३) कनवर्सेसन्स पृ० ४१ ।
परिसंवाद-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org