Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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महात्मागांधी का प्रयोगदर्शन
होता है । इसलिए अत्यन्त क्रूर अत्याचारी के हृदय में भी सत्य की परम पवित्र मूर्ति स्थित होती ही है । दूसरों के पापों के प्रभाव से मेरा भी व्यक्तित्व आवेष्टित है -- ऐसा आकलन करके दूसरे के संकट समूहों को वह स्वयं सहन करता है तथा व्यापक असत्य के प्रतीकार के लिए उद्यत हो जाता है । वस्तुतः यही अहिंसा का मार्ग है । अहिंसा का परिणाम अहेतुक प्रेम, असीम नम्रता और अहंकार का आत्यन्तिक विनाश है | अहिंसा अपने में पूर्ण, नित्य एवं स्वाभाविक स्थिति है ।
क्योंकि अहिंसा स्वाभाविक स्थिति है, इसीलिए महात्मागांधी ने कहा. "सभी प्राणी अहिंसा में ही अभिनिविष्ट हैं, किन्तु अज्ञानावस्था में रहते हुए जीवन और मृत्यु में सतत युद्ध चल रहा है, किन्तु इसकी परिणति जीवन में है मृत्यु में नहीं" । इसलिए सत्य का शोध अहिंसा को छोड़कर सम्भव नहीं है । सत्य और अहिंसा आपस में इतनी ओत-प्रोत हैं कि एक को छोड़कर दूसरे की स्थिति की कल्पना नहीं की जा सकती । परम सत्य और परम अहिंसा में कुछ भी भेद नहीं है, फिर भी महात्मागांधी साधन के रूप में अहिंसा को तथा साध्य के रूप में सत्य को स्वीकार करते हैं। क्योंकि साधन मनुष्य के कब्जे में होता है, अतः वही परम कर्त्तव्य एवं परम धर्म होता है । सत्य तो साक्षात् परमेश्वर ही है ।
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'प्राप्त अपर सत्य का परिष्कार तथा अप्राप्त परम सत्य का अन्वेषण' यही सत्य का शोध है । इसलिए सत्य का शोध करनेवाले के लिए अहिंसा के प्रति श्रद्धा जरूरी है। श्रद्धा का अभिप्राय है -- आत्मविश्वात । आत्मविश्वास का तात्पर्य है -- ईश्वर में विश्वास । इसलिए महात्मा गांधी ने कहा कि अहिंसा केवल बुद्धि का विषय नहीं है अपितु वह श्रद्धा और भक्ति का विषय है । यदि साधक का विश्वास अपने में नहीं है तो अहिंसा उसका अभीष्ट सिद्ध नहीं कर सकेगी ।
अहिंसा की शक्ति को संघटित करना महात्मा गांधी के प्रयोग-दर्शन का का परम उत्कर्ष है । उन्होंने अहिंसा की शक्ति को संघटित किया और सामाजिक धर्म के रूप में उसका अपूर्व प्रयोग किया । महात्मा गांधी ने कहा- "मनुष्य केवल व्यक्ति ही नहीं है, वह पिण्ड होते हुए ब्रह्माण्ड भी है । वह अपने ब्रह्माण्ड का भार अपने कन्धों पर रखकर घूम रहा है। जो धर्म केवल व्यक्ति के ही लिए है, वह मेरे काम का नहीं है । मेरा तो यह मानना है कि सम्पूर्ण समाज अहिंसा का आचरण कर सकता है और स्वभावतः करता भी है। अहिंसा एक सामाजिक धर्म है और सामाजिक धर्म के रूप में ही उसका विकास होगा" । क्योंकि महात्मागांधी मनुष्य के वैयक्तिक और सामाजिक दोनों स्वरूपों को अविनाभूत
परिसंवाद - ३
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