Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गांधीचिन्तन की सार्थकता
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उद्योगों पर मुट्ठीभर पूजीपतियों का एकाधिपत्य कायम हो जाता है, श्रमिकों का शोषण तथा उनकी समता और स्वतन्त्रता का अपहरण होता है। सभी स्वीकार करते हैं कि जनकल्याण से प्रेरित श्रमिकों के हित तथा समता की भावना से सम्पन्न आर्थिक व्यवस्था ही देश के लिए उपयुक्त हो सकती है। सभी स्वीकार करते हैं कि जीवननिर्वाह योग्य मजदूरी तथा भरपूर काम की व्यवस्था करके ही श्रमिकों के नैतिक स्तर को, और उनकी क्षमता को ऊंचा उठाया जा सकता है। सभी प्रगतिशील विद्वान् आर्थिक असमानताओं को दूर करने के निमित्त निम्नतम और उच्चतम आय के अन्तर को घटाने के पक्ष में हैं। सभी स्वीकार करते हैं कि औद्योगिक व्यवस्था की सफलता के लिये श्रमिकों और प्रबन्धकों के बीच में सद्भावना तथा दोनों में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना नितान्त आवश्यक है। सभी स्वीकार करते हैं कि खेती के काम में तथा छोटे और मझोले उद्योगों के संचालन में सहकारिता को प्रोत्साहित करना लाभप्रद है।
पर दो तीन बातों में गांधीजी द्वारा प्रतिपादित आर्थिक व्यवस्था के समर्थकों और दूसरे प्रगतिशील विद्वानों में गहरा मतभेद है। जहां गांधीवादी विद्वान् ट्रस्टीशिप अर्थात् न्यासिता के सिद्धान्त को हिन्दुस्तान की एक बहुत बड़ी देन मानते हैं, वहां दूसरे विद्वानों का विचार है कि सम्पूर्ण पूंजीवर्ग के स्वभाव में इतना बड़ा परिवर्तन नहीं हो सकता कि वह स्वेच्छा से अपने को अपनी मिल्कियत का मालिक समझने के बजाय न्यासी ( ट्रस्टी ) समझने लगे। मनोवृत्ति के इस परिवर्तन के बिना तो नियन्त्रित न्यासिता की दशा नियन्त्रित पूंजीवाद जैसी ही रहेगी। इन विद्वानों का विचार है कि जिस तरह गांधीजो ने ट्रस्टोशिप के प्रति जमींदारों की उपेक्षा देखकर सन् १९४२ में ही जमींदारी को खत्म कर देने का समर्थन कर दिया था। इसी तरह पूंजीपति वर्ग की उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीयकरण द्वारा पूजीवाद को खत्म करने का भी समर्थन होना चाहिए ।
गांवों की आर्थिकदशा को सुधारने की आवश्यकता सभी विद्वान् स्वीकार करते हैं। देश की अधिकांश जनता गांवों में रहती है। गांवों की दशा को सुधार कर जनता की दशा सुधारी जा सकती है। पर नगरों की औद्योगिक व्यवस्था तथा बड़ी मशोनों से संचालित उद्योगों की समुचित व्यवस्था की इतनी उपेक्षा नहीं की जा सकती, जितनी गांधीजी की आर्थिक व्यवस्था में की गयी है। बड़ी बड़ी मशीनों द्वारा बृहद् उद्योगों का समुचित प्रबन्ध किये वगैर जनता और समाज की नवयुगोन आवश्य'कताओं की पूर्ति नही हो सकती। गांधीजी के ग्रामीण अर्थतन्त्र में जैसा जीवन स्तर
परिसंवाद-३
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