Book Title: Bharatiya Chintan ki Parampara me Navin Sambhavanae Part 2
Author(s): Radheshyamdhar Dvivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi
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गांधीचिन्तन की सार्थकता
प्रो० मुकुटबिहारीलाल
गांधी जी धर्मनिष्ठ थे। धर्म पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। धर्म का अनुगमन वह अपना पुनीत कर्तव्य समझते थे। उनका सारा जीवन धर्म की भावना से अनुप्राणित था। धर्म की व्यापकता और सार्वभौमिकता पर उनका दृढ़ विश्वास था। वह जड़ता और संकीर्णता को धर्म की प्रगति के लिए घातक तथा उनका परित्याग जीवनोत्कर्ष के लिये आवश्यक समझते थे। सब धर्मों के प्रति आदर भाव, उदार और व्यापक दृष्टिकोण से विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के सिद्धान्तों का अध्ययन एवं उनके सर्वमान्य व्यापक तत्त्वों के आधार पर सर्वधर्म समन्वय के लिये प्रयत्न भी, वह धर्म की प्रगति और प्रतिष्ठा के लिये आवश्यक समझते थे। वह चाहते थे कि साम्प्रदायिक आग्रह को छोड़कर हम सब अपने अपने धर्म पर आस्था रखते हुए अन्य धर्मों के सद्गुणों को निः संकोच ग्रहण करें, जोवन के नवीन अनुभवों तथा आवश्यकताओं की पृष्ठभूमि में धर्म का विकास करें अर्थात् नवीन धार्मिक सिद्धान्तों को प्रतिपादित और प्रतिष्ठित करें। गतिशील संसार में उदार धार्मिक भावना तथा गतिशील धर्म ही जीवनोत्कर्ष में सहायक हो सकता है। धर्मनिष्ठ व्यक्तियों के लिए गांधीजी के इन सभी विचारों की निः सन्देह बड़ी उपादेयता है ।
गांधीजी योग, ध्यान और समाधि के बजाय भक्ति से समन्वित कर्मयोग को आत्मसिद्धि का सर्वोत्तम साधन समझते थे। उनकी धारणा थी कि तपस्या के लिए संसार का परित्याग आवश्यक नहीं है। मानव कल्याण में जीवन का समर्पण तथा समाजहित की पुष्टि और अभिवृद्धि के निमित्त यज्ञीय भावना से समाजोपयोगी व्यवसाय में संलग्नता भी तपस्या ही है। इनके द्वारा ही अभ्युदय और निः श्रेयस् दोनों की सिद्धि सम्भव है। गांधीजी स्वयं पूर्ण निष्ठा से प्रार्थना और स्मरण द्वारा भगवान् की उपासना करने के साथ साथ संसार की निष्काम सेवा द्वारा ईश्वर आराधना करते थे। वह महर्षि कपिल के इस विचार से सहमत थे कि ईश्वर को सब प्राणियों में स्थित तथा सब प्राणियों का आत्मा जानकर सब प्राणियों में दान, मान, मित्रता
परिसंवाद-३
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