Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ३५७-३७० वर्ष ।
[ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
कर वरदत्त अपने मकान पर आया और अपने पिता एवं कुटुम्ब वालों को कह दिया कि मेरा भाव सूरिजी के पास दीक्षा लेने का है पर कुटुम्ब वाले कब अनुमति देने वाले थे । जैसे भड़भूजा की भाड़ में चने पचते हैं यदि उससे कोई एक चना उछल कर बाहर पड़ता है तो चने संकने वाना उसे उठा कर भाड़ में डाल देता है । इसी प्रकार जीव संसार में कर्मों से पच रहे हैं यदि कोई जीव संसार का त्याग करना चाहे तो कुटुम्ब वाले उसको कब जाने देते हैं पर जिसके वैराग्य का सच्चा रंग लग गया हो वह जान बूझ कर संसार रूपी कारागृह में कब रह सकता है ! आखिर वरदत्त ने अपने माता पिता स्त्री वगैरह कुटुम्ब को ऐसा उपदेश दिया कि वे वरदत्त को घर में रखने में समरथ नहीं हुये । आखिर शाह लुम्बा ने वरदत्त की दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया और वरदत्त के साथ उसके सात साथियों ने भी वरदत्त का अनुकरण किया और सूरजी महाराज ने उन आठ वीरों को शुभ मुहूर्त में दीक्षा देदी और वरदत्त का नाम मुनि पूर्णानन्दर खा ।
मुनि पूर्णानन्द बड़ा ही भाग्यशाली था । सूरिजी महाराज की पूर्ण कृपा थी। पूर्णानन्द ने बहुश्रुतीजी महाराज का विनय व्यावच्च और भक्ति कर वर्तमान साहित्य का अध्ययन कर लिया और गुरुकुलवास में रहकर सर्वगुण सम्पन्न होगया। अतः आचार्यश्री कक्कसूरिजी ने अपनी अन्तिमावस्था में उपकेशपुर में महामहोत्सवपूर्वक उपाध्याय पूर्णानन्द को सूरिपद से विभूषित कर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया ।
आचार्य देवगुप्तसूरि बड़े ही प्रतिभाशाली थे। आप जैसे स्वपर मत के शास्त्रों के मर्मज्ञ थे वैसे ही तप करने में बड़े भारी शूरवीर थे । आपको जिस दिन से सूरि बनाये उसी दिन से छट छट तपस्या करने की प्रतिज्ञा करली थी। अतः श्राप श्री निरन्तर छट छट की तपश्चर्या करते थे तपस्या से आत्मा निर्मल होता है, कर्मों का नाश होता है अनेक लब्धियें उत्पन्न होती हैं देव देवी सेवा करते हैं तपस्या का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव भी पड़ता है । और परम्परा से मोक्ष की प्राप्ती भी होती है।
सूरिजी महाराज ने अपने विहार क्षेत्र को इतना विशाल बना लिया था कि अपने पूर्वजों की पद्धति के अनुसार जहां जहां अपने साधु साध्वियों का विहार होता था एवं उकेशवंश के श्रावक रहते थे वहाँ वहाँ घूम घूम कर उन लोगों को धर्मोपदेश श्रवण का लाभ प्रदान करते थे। पूर्वाचार्यों की स्थापित की हुई द्धि की मशीन को यों तो जितने आचार्य हुये उन्होंने तीव्र एवं मंदगति से चलाई ही थी पर आपने उस मशीन के जरिये हजारों मांस भक्षियों को दुर्व्यसन से छुड़ाकर जैन संघ में वृद्धि की थी।
सूरिजी महाराज के शिष्यों में कई तपसी कई विद्यावली साधु भी थे ! एक देवप्रभ पंडित आकाशगामिनी विद्या और योनि प्रभृत शास्त्र का ज्ञाता था वह हमेशा शत्रुजय गिरनार की यात्रा करके ही अन्न जल लेता था। एक समय शत्रुजय की यात्रा कर वापिस लौट रहा था रास्ते में एक संघ शत्रुजय जा रहा था । मार्ग में मलेच्छों की सेना ने संघ पर आक्रमण कर दिया जिससे संघ महासंकट में आ पड़ा। सब लोग अधिष्ठायिक देव को याद कर रहे थे । पण्डित देवप्रभ ने संघ को दुखी देख योनिप्रभृत शास्त्र की विद्या से अनेक हथियारबद्ध सुभट बनाकर उन मलेच्छों का सामनाकिया । पर विद्यावल के सामने वे मलेच्छ विचारे कहां तक ठहर सकते थे ? बस, मच्छ बुरी तरह पराजित होकर भाग छूटे और संघ उस संकट से वचकर शत्रुजयतीर्थ पर पहुँच गया । उस संघ ने सोचा कि अधिष्ठायक देव ने हमारी सहायता की है। पर वह अधिष्ठायक सूरिजी का शिष्यमुनि देवप्रभ ही था।
म्लेच्छों ने पुनः अपना संगठन कर शत्रुञ्जय पर धावा बोल दिया। उस समय भी देवप्रभ शत्रुजय
. [ सूरिजी के शासन में विद्यावली मुनि
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