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भगवती सूत्र - श. १ वीर स्तुति
'श्रम' धातु से 'श्रमण' शब्द बना है 'श्राम्यति तपस्थतीति श्रमणः' जिसका अर्थ यह होता है कि जो तपस्या करें और जगज्जीवों के खेद को जाने, वह 'श्रमण' कहलाता है। किन्तु सावद्य प्रवृत्ति करने वाला और सावद्य प्रवृत्ति का उपदेश देने वाला 'श्रमण' नहीं है ।
अथवा - 'समणे' शब्द की संस्कृत छाया 'समन:' भी होती है। जिसका अर्थ यह है कि - जिसका मन शुभ हो, जो समस्त प्राणियों पर समभाव रखे उसे 'समन' कहते हैं। जो ऐश्वर्यादि युक्त हो अर्थात् पूज्य हो उसे भगवान् कहते हैं ।
रागद्वेषादि आन्तरिक शत्रु दुर्जेय हैं। उनका निराकरण करने से जो महान् वीर-पराकमी है, वह महावीर कहलाता है । भगवान् का यह गुणनिष्पन्न नाम देवों द्वारा दिया गया था । आचारादि श्रुतधर्म के प्रणेता होने के कारण भगवान् 'आदिकर' हैं, जिसके द्वारा संसार समुद्र तिरा जाय उसे 'तीर्थ' कहते हैं, ऐसे साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका, इस चतुविध संघ रूप भाव तीर्थ के कर्त्ता होने से वे 'तीर्थङ्कर' हैं। किसी के उपदेश के बिना ही वे स्वयमेव हेय ज्ञेय उपादेय रूप बोध को प्राप्त होते हैं, अतः वे सहसंबुद्ध या स्वयंसंबुद्ध होते हैं । समस्त पुरुषों में वे रूपादि अतिशयों से सर्वोत्तम होते हैं, इसलिए वे पुरुषोत्तम हैं । जिस प्रकार लोक में सिंह उत्कृष्ट शौर्य सम्पन्न माना जाता है, उसी प्रकार-शूरवीरता, की अपेक्षा भगवान् पुरुषों में सिंह के समान हैं। जैसे कमलों में सफेद, हजार पांखुडी वाला पुण्डरीक कमल प्रधान होता है, वैसे ही भगवान् पुरुषों में पुण्डरीक कमल समान प्रधान होते हैं । भगवान् पूर्णरूप से मल रहित तथा समस्त शुभ भावों से युक्त होने के कारण कमल की तरह श्वेत हैं, अतएव वे पुरुषवर पुण्डरीक हैं। जैसे गन्धहस्ती की गन्ध से सब हाथी दूर भाग जाते हैं, उसी प्रकार जिस जिस देश में तीर्थङ्कर भगवान् विहार करते हैं, वहाँ (धान्य आदि को हानि पहुँचाने वाले चूहों आदि जीवों की अधिकता ), परचक्र
: ( दूसरे राजा का भय ), दुर्भिक्ष (दुष्काल), डमर ( लूट पाट) आदि उपद्रव और मिरगी आदि रोग शान्त हो जाते हैं, अतएव भगवान् 'पुरुषवर गन्ध हस्ती हैं। इस प्रकार 'पुरुष - सिंह, पुरुषवर पुण्डरीक और पुरुषवर गन्धहस्ती, इन तीन उपमाओं से भगवान् पुरुषों में उत्तम ( पुरुषोत्तम) हैं । भगवान् लोकनाथ हैं अर्थात् संज्ञी भव्य जीव रूप लोक के नाथ+
• जैसा कि कल्पसूत्र में कहा गया है-"अयले भयभेरवाणं परीसहोवसग्गाणं, तिलमे, परिमाणं पालए धीमं मरइरइसहे, दविए, वीरियसंपण्णे देवेहि से णामं कए समणे भगवं महावीरे ।”
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+ 'योग क्षेमकृन्नाथः, अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः, प्राप्तस्य रक्षणं क्षेमः ।" जो योगक्षेम करता है, उसे 'नाच' कहते हैं । अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति होना योग कहलाता है और प्राप्त वस्तु की रक्षा करना क्षेत्र
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