________________
देवागम-आप्तमीमांसा
( बोध और वचनरूप ) दूषण-प्रमाणोंको स्वीकार करना आवश्यक है, जो सर्वथा अभाववादमें सम्भव नहीं, क्योंकि वे दोनों भावरूप हैं। - १३ में सर्वथा भाव और सर्वथा अभाव दोनोंरूप वस्तुको माननेपर विरोध तथा उसे सर्वथा अवाच्य (अनिर्वचनीय) स्वीकार करनेपर उसका 'अवाच्य' शब्दसे भी कथन न कर सकनेका दोष दिखाया गया है ।
१४-२२ तक ९ कारिकाओं द्वारा स्याद्वादनय (अपेक्षावाद) से वस्तुको अनेकान्तात्मक अर्थात् भाव ( विधि ) और अभाव ( निषेध ) रूप विरोधी युगलको लेकर उसे सप्तभङ्गात्मक ( सप्तधर्मरूप ) सिद्ध किया है ! २३वीं कारिका द्वारा एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि विरोधी युगलोंको लेकर भी वस्तुमें सप्तभंगी ( सप्तभङ्गात्मकता ) की योजना करनेकी सूचना की गई है।
इस तरह इस प्रथम परिच्छेदमें भाव और अभावके सम्बन्धमें उन एकान्त मान्यताओंकी मीमांसा की गई है जो ग्रन्थकारके समयमें चर्चित एवं बद्धमूल थीं। साथ ही उनका नय-विवक्षासे समन्वय करके उनमें सप्तभङ्गी-अनेकान्तकी स्थापना की है। द्वितीय परिच्छेद :
द्वितीय परिच्छेदमें २४-३६ तक १३ कारिकाएँ हैं । २४-२७ तक चार कारिकाओं द्वारा अद्वैतैकान्त ( सर्वथा एकवाद ) की समीक्षा की गई है और कहा गया है कि वस्तुको सर्वथा एक माननेपर क्रिया-भेद, कारक-भेद, पुण्य-पापरूप कर्मद्वैत, सुख-दुःखरूप फलद्वैत, इहलोक-परलोकरूप लोकद्वैत, विद्या-अविद्यारूप ज्ञानद्वैत और बन्ध-मोक्षरूप जीवकी शुद्धाशुद्ध दो अवस्थाएँ ये सब अद्वैतमें सम्भव नहीं हैं। इसके सिवाय हेतुसे अद्वैत की सिद्धि करनेपर साधन और साध्यका द्वैत स्वीकार करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। यदि बिना हेतुके ही अद्वैत माना जाय, तो द्वैतको भी बिना हेतुके मान लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त अद्वैतवादमें यह भी विचारणीय है कि 'अद्वैत' पदमें जो 'द्वैत' शब्द पड़ा हुआ है उसका वाच्य द्वैत है या नहीं ? क्योंकि नामवाली वस्तुका
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org