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कारिका १०५-१०६ ]
देवागम
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'अर्थनय' और शेष तीन भेद 'शब्दनय' कहे जाते हैं । इन सबके उत्तरोत्तर भेद असंख्य हैं । संक्षेपमें कहा जाय तो जितने वचनमार्ग हैं - शब्दभेद हैं- तथा अपने-अपने ज्ञान के विकल्प हैं उतने उतने नयोंके भेद हैं । नयोंका यह विषय बड़ा ही गहन-गंभीर है । इनके लक्षणादिका विशेष कथन नयचक्रादि ग्रन्थोंसे जानने योग्य है । स्याद्वाद और केवलज्ञानमें भेद - निर्देश
स्याद्वाद - केवलज्ञाने सर्वतत्त्व - प्रकाशने ।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ।। स्याद्वाद और केवलज्ञान दोनों ( जीवादि ) सब तत्त्वोंके प्रकाशक हैं। दोनोंके प्रकाशनमें साक्षात् और असाक्षात् (परोक्ष) - का भेद ( अन्तर ) है - केवलज्ञान जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष इन सात तत्त्वोंका प्रत्यक्षतः एवं युगपत् प्रकाशक है और स्याद्वादरूप श्रुतज्ञान इन पदार्थोंका अप्रत्यक्षतः ( परोक्षरूप से ) क्रमशः प्रकाशक है । इन दोनों ज्ञानोंमेंसे जो किसी भी ज्ञानके द्वारा प्रकाशित अथवा उसका वाच्य नहीं वह अवस्तु होती है ।'
नय-हेतुका लक्षण सधर्मणैव साध्यस्य साधर्म्यादविरोधतः ।
स्याद्वाद - प्रविभक्ताऽर्थ - विशेष - व्यञ्जको नयः ॥ १०६॥
'स्याद्वादरूप परगमागमसे विभक्त हुए अर्थविशेषका - शक्यअभिप्रेत अप्रसिद्धरूप विवादगोचर साध्यका - जो सधर्मा— दृष्टान्तके द्वारा, साध्यके साधर्म्यसे और ( विपक्षके) अविरोधरूप से व्यञ्जक है - गमक अथवा बोधक है-उसको नय - नयविशेषरूप हेतु - कहते हैं - ' नीयते गम्यते साध्योऽर्थोऽनेन इति नय:' इस निरुक्तिसे 'नय' शब्द यहाँ हेतुका वाचक है और अनेक धर्मोमेंसे एक-धर्मप्रतिपादक सामान्य नयकी दृष्टिमें भी वह स्थित है ।'
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