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१०२ समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १० बनता है। और इस तरह सत् असत् आदि वाक्योंमें विधि-निषेधकी गौण तथा प्रधानरूपसे वृत्तिका होना लक्षित होता है।'
तदतद्रूप वस्तुको तद्रूप ही कहनेवाली वाणी सत्य नहीं तदतद्वस्तु वागेषा तदेवेत्यनुशासती । न सत्या स्यान्मषा-वाक्यः कथं तत्त्वार्थ-देशना ॥११०।। ___( यदि यह कहा जाय कि वाक्य विधिके द्वारा ही वस्तुतत्त्वका नियमन करता है तो यह सर्वथा एकान्त ठीक नहीं है; क्योंकि) वस्तु तत्-अतत्रूप है-दृष्टि-भेदके साथ अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए सत्-असत्, नित्य-अनित्यादि अनेकान्तरूप है-जो वाक्य ( वाणी ) उसे सर्वथा तत्रूप-सत्-नित्यादिरूप-ही प्रतिपादन करता है-उसके प्रतिपक्षी अविनाभावी धर्मको गौण किये हुए न होकर उसका विरोधक है-वह सत्य नहीं होता तब ( ऐसे ) मिथ्या-वाक्योंसे तत्त्वार्थकी-यथार्थ वस्तुस्वरूपकी-देशना ( कथनी ) कैसे बन सकती है ?-नहीं बन सकती।'
व्याख्या-यद्यपि सभी (विधि और प्रतिषेध) वाक्य विधि और प्रतिषेध दोनों-रूप वस्तुका प्रतिपादन करते हैं फिर भी यदि कहा जाय कि वे केवल विधिका ही अनुशासन ( उपदेश ) करते हैं तो यह कथन सत्य (यथार्थ) नहीं-मिथ्या है और मिथ्या-वाक्योंके द्वारा वस्तुस्वरूपका यथार्थ कथन नहीं बन सकता । अतः वाक्य चाहे विधिरूप हों और चाहे निषेधरूप, सभी विधि तथा प्रतिषेध दोनोंरूप वस्तुका प्रतिपादन करते हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि विधि-वाक्यके द्वारा विधिका कथन मुख्यरूपसे और प्रतिषेधका कथन गौणरूपसे तथा प्रतिषेध-वाक्यके द्वारा प्रतिषेधका कथन मुख्यरूपसे और विधिका कथन गौणरूपसे किया जाता है । यही यथार्थ तत्त्व-देशना है।
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