Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 173
________________ १०४ समन्तभद्र-भारती [ परिच्छेद १० नहीं होता तो हम ऐसा अभिनिवेश करके कि वाक्यके द्वारा स्व (विधि) अथवा पर (प्रतिषेध-अन्यापोह ) ही कहा जाता है, क्यों भ्रामक प्रवृत्ति करें या दूसरोंको ठगें । अतः जिस प्रकार वाक्यके द्वारा केवल विधिका ही नियमत नहीं होता उसी तरह केवल प्रतिषेध ( अन्यापोह ) का भी नियमन नहीं होता । किन्तु उभयका नियमन होता है और यह वाक्य ( वाणी ) का स्वभाव है। अभिप्रेत-विशेषकी प्राप्तिका सच्चा साधन सामान्यवाग्विशेषे चेन्न शब्दार्थो मृषा हि सा । अभिप्रेत-विशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्य-लाञ्छनः ।।११२।। 'यदि यह कहा जाय कि ( 'अस्ति' जैसा ) सामान्य वाक्य परके अभावरूप ( अन्यापोह ) विशेषमें वर्तता है-उसे प्रतिपादित करता है तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि सामान्यवाक्य विशेषमें शब्दार्थरूप नहीं है-अभिप्रायमें स्थित विशेषको नहीं जनाता अथवा प्रतिपादित नहीं करता-और इसलिये सत्यरूप न होकर मिथ्या-वाक्य है। अभिप्रायमें स्थित जो विशेष उसकी प्राप्तिका सच्चा लक्षण अथवा चिन्ह स्याद्वाद' ( स्यात् शब्दपूर्वक बाद-कथन ) है-सामान्य-विशेषात्मक वस्तुका जब मुख्यतः सामान्यरूपसे कथन किया जाता है तब उसका विशेषरूप गौण होकर वक्ताके अभिप्रायमें स्थित होता है, जिसे साथमें प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द व्यक्त अथवा सूचित करता है। और इसलिये 'स्यात्कार' अभिप्रेत-विशेषके जाननेका सच्चा साधन एवं मार्ग है। अभिप्रेत वही होता है जो स्वरूपादि ( स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव ) के द्वारा सत् होता है-पररूपादिके द्वारा सत् नहीं।' व्याख्या-बौद्धोंका कथन है कि विधिरूप सामान्यको कहनेवाला वाक्य भी विशेष ( अन्यापोह ) का ही प्रतिपादन करता है-उसीमें उसकी प्रवृत्ति होती है। पर उनका यह कथन संगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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