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कारिका १११ ] देवागम
१०३ वाक्-स्वभाव-निर्देश, तद्भिन्न वाक्य अवस्तु बाकस्वभावोऽन्यवागर्थ-प्रतिषेध-निरङ्कुशः। आह च स्वार्थ-सामान्यं तादृग्वाक्यं ख-पुष्पवत् ।।१११।।
'( यदि बौद्धोंकी मान्यतानुसार यह कहा जाय कि वाक्य प्रतिषेधके द्वारा ही वस्तुतत्त्वका नियमन करता है तो यह एकान्त भी ठीक नहीं है; क्योंकि ) वाक्यका यह स्वभाव है कि वह अपने अर्थ-सामान्यका प्रतिपादन करता हआ अन्य-वाक्योंके अर्थ-प्रतिषेधमें निरंकुश होता है-बिना किसी रोक-टोकके दूसरे सब वाक्योंके विषयका निषेध करता है; जैसे 'घट लाओ' यह वाक्य पट लाओ, लोटा लाओ, घड़ी लाओ, मेज ( कुर्सी ) लाओ इत्यादि पर-वाक्योंके अर्थका स्वभावसे निषेधकरूप है। इस वाक्-स्वभावसे भिन्न बौद्धोंका जो उस प्रकारका अन्यापोहात्मक वाक्य है वह आकाशके पुष्प-समान अवस्तु है--कहा-न-कहाके बराबर अथवा अनुक्ततुल्य है, क्योंकि विशेष-रहित सामान्य और सामान्य-शून्य विशेष कहीं भी ( बाहर-भीतर ) उपलब्ध नहीं होता। जब उपलब्ध नहीं होता तब विशेष-रहित सामान्य ही अथवा सामान्य-शून्य विशेष ही वस्तुका स्वरूप है, इस प्रकारके आग्रह-द्वारा स्व-परको कैसे ठगा जाय ? नहीं ठगा जाना चाहिये।
व्याख्या-बौद्धोंकी मान्यता है कि कोई भी वाक्य हों वे सब अन्यापोह-रूप प्रतिषेधका ही प्रतिपादन करते हैं, विधिका नहीं। इस पर आचार्य कहते हैं :-वाक्य ( वाणी) का यह स्वभाव है कि वह अन्य वाक्यों द्वारा प्रतिपादित अर्थका निर्बाधरूपसे प्रतिषेध करता है और अपने विधिरूप अर्थ-सामान्यका भी कथन करता है। यदि केवल अन्यापोहरूप प्रतिषेध ही वाच्य हो तो उक्त प्रकारका वाच्य आकाश-पुष्पकी तरह असत् है। हमें विशेषको छोड़कर केवल सामान्य और सामान्यको छोड़कर केवल विशेष कहीं उपलब्ध नहीं होता। जब उक्त प्रकारका वाच्य उपलब्ध
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