Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 176
________________ कारिका ११४ ] देवागम १०७ दयासे युक्त है, इन्दिय-दमन, परिग्रह-त्यजन और ध्यान-समाधिकी तत्परताको लिए तथा उनकी शिक्षाओंसे परिपूर्ण है, नयों तथा प्रमाणोंसे भले प्रकार पुष्ट है, सर्वबाधाओंसे विवर्जित है, सबके हितरूप है और अन्य समस्त एकान्त-शासनोंके द्वारा अजेय हैकोई भी उसे जीत नहीं सकता-उन श्रीवीर भगवान्को मैं नतमस्तक होता हूँ।] यद्भक्तिभाव-निरता मुनयोऽकलंकविद्यादिनन्द-जिनसेन-सुवादिराजाः । गायन्ति दिव्य-वचनैः सुयशांसि यस्य भूयाच्छियै स युगवीर-समन्तभद्रः ।।३।। [जिनकी भक्तिमें लीन हुए अकलंकदेव, विद्यानन्दस्वामी, भगवज्जिनसेन और वादिराज प्रमुख जैसे महामुनि अपने दिव्यवचनों द्वारा जिनके सुयशोंका गान करते हैं वे युगवीर-इस युगके प्रधान पुरुष-श्रीसमन्तभद्रस्वामी हमारी श्री'वृद्धिके लिए निमित्तभूत होवें-उनके प्रसादसे अथवा प्रसन्नतापूर्वक आराधनसे हमें निजश्रीकी-आत्मीय लक्ष्मी-ज्योति, शोभा-प्रभा सम्पत्ति-विभूति, शक्ति-सरस्वती और सिद्धि-समृद्धिकी-अधिकाधिक प्राप्ति होवे ।] इति श्रीनिरवद्यस्याद्वादविद्याधिपति - सकलतार्किकचक्रचूडामणि-श्रद्धागुणज्ञतादिसातिशयगुणगणविभूषित-सिद्धसारस्वत-स्वामिसमन्तभद्राचार्यप्रणीतं सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तिरूपं देवागमाऽपरनामाऽऽप्तमीमांसाशास्त्रं . युगवीर-जुगलकिशोर-मुख्तारविरचित-स्पष्टार्थादियुक्ताऽनुवादसमन्वितं समाप्तम् । १. 'श्री' शब्द उन सभी अर्थोंमें प्रयुक्त होता है जिन्हें 'निजश्रो' की व्याख्यामें व्यक्त किया गया है और जो यहाँ विवक्षित हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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