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कारिका ११३] देवागम
१०५ नहीं है; क्योंकि इससे अन्यापोह-शब्दका अर्थ सिद्ध नहीं होता। शब्दका वही अर्थ माना जाता है जिसमें उस शब्दकी प्रवृत्ति हो । अन्यापोहमें किसी भी शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती। ऐसी स्थितिमें विधिरूप सामान्यको कहनेवाला वाक्य भी आपके मतानुसार मिथ्या ठहरता है । वास्तवमें वही वाक्य सत्य हैं जिसके द्वारा अपने अभिप्रेत अर्थ-विशेषकी प्राप्ति होती है और ऐसा वाक्य 'स्यात्' शब्दसे युक्त ही संभव है और उसीसे सत्य ( यथार्थ अर्थ ) की पहचान होती है। क्योंकि वह लोगोंको अभिप्रेत अर्थ-विशेषकी प्राप्ति कराता है। अन्य (स्यात्कारसे रहित ) वाक्योंसे अर्थविशेषकी प्राप्ति नहीं होती। यही स्याद्वाद और अन्यवादोंमें विशेष अन्तर है।
स्याद्वाद-संस्थिति विधेयमीप्सितार्थाङ्गं प्रतिषेध्याऽविरोधि यत् । तथैवाऽऽदेय-हेयत्वमिति स्याद्वाद-संस्थितिः ॥११३॥ '( अस्ति इत्यादिरूप ) जो विधेय है-मनके अभिप्रायपूर्वक जिसका विधान किया जाता है, किसोके भयादिवश नहीं-और ईप्सित-अर्थक्रियाका कारण है वह प्रतिषेध्यक-नास्तित्वादिके --साथ अविरोधरूप है-जो नास्तित्वादिके साथ अविरोधरूप नहीं वह ईप्सित-अर्थक्रियाका कारण भी नहीं हो सकता; क्योंकि विधि-प्रतिषेधके परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है, विधिके बिना प्रतिषेधका और प्रतिषेधके बिना विधिका अस्तित्व नहीं बनता। और जिस प्रकार विधेय प्रतिषेध्यका अविरोधी ईप्सित अर्थक्रियाका अंग-कारण सिद्ध है उसी प्रकार वस्तुका आदेय-हेयपना है, अन्यथा नहीं; क्योंकि विधेयका एकान्त होनेपर किसीके हेयत्वका विरोध होता है। प्रतिषेध्यका एकान्त होनेपर किसीके आदेयत्वका विरोध होता है; स्याद्वादीके अभिप्रायानुसार सर्वथा विधेय ही प्रतिषेध्य नहीं होता; कथंचित् विधि-प्रतिषेध्यके तादाम्य
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