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कारिका १०९ ]
देवागम आपत्ति ठीक नहीं है; क्योंकि हमारे यहाँ कोई भी वस्तु मिथ्या एकान्तके रूपमें नहीं है। जब वस्तुका एक धर्म दूसरे धर्मकी अपेक्षा नहीं रखता-उसका तिरस्कार कर देता है तो वह मिथ्या कहा जाता है और जब वह उसकी अपेक्षा रखता हैउसका तिरस्कार नहीं करता-तो वह सम्यक् माना जाता है । वास्तवमें वस्तु निरपेक्ष एकान्त नहीं है, जिसे सर्वथा एकान्तवादी मानते हैं; किन्तु सापेक्ष एकान्त है और सापेक्ष एकान्तोंके समूहका नाम ही अनेकान्त है, तब उसे और तदात्मक वस्तुको मिथ्या कैसे कहा जा सकता है ? नहीं कहा जा सकता।
वस्तुको विधि-वाक्यादि-द्वारा नियमित किया जाता है नियम्यतेऽर्थो वाक्येन विधिना वारणेन वा । तथाऽन्यथा च सोऽवश्यमविशेष्यत्वमन्यथा ॥१०९।। ( यदि कोई यह शंका करे कि वस्तुतत्त्व जब अनेकान्तात्मक है तब वाक्यके द्वारा उसे कैसे नियमित किया जाय, जिससे प्रतिनियत विषयमें लोककी प्रवृत्ति बन सके, तो उसका समाधान यह है कि ) अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व विधिवाक्य अथवा निषेध-वाक्यके द्वारा नियमित किया जाता है। विधि या निषेधरूप जिस वाक्यके द्वारा वह नियमित किया जाय उसरूप तथा उससे अन्यथाविपक्षरूप वह अवश्य होता है, क्योंकि विधि-निषेधका परस्पर अविनाभाव-सम्बन्ध है और इससे जिस विधि या निषेध-वाक्यके द्वारा वह नियमित किया जाता है वह उस समय मुख्य होता है
और प्रतिपक्षी वाक्यका विषय गौण | यदि ऐसा न माना जायविधि-निषेधरूपसे उसका अवश्यंभावीपना स्वीकार न किया जायतो उस केवल विधि या केवल निषेध-वाक्यसे जो विशेष्य (वस्तुतत्त्व ) है वह नहीं बन सकेगा; क्योंकि प्रतिषेधरहित विधिके और विधिरहित प्रतिषेधके विशेषणपना नहीं बनता और विधिप्रतिषेध दोनोंसे रहितके गगन-कुसुमके समान विशेष्यपना नहीं
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