Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 166
________________ कारिका १०३ ] देवागम ९७ मत्यादि ज्ञान-समूह है उसका ( व्यवहित-परंपरा ) फल ग्रहण और त्यागको बुद्धि है तथा पूर्व में कही हुई उपेक्षा भी उसका ( व्यवहित ) फल है और अपने विषयमें अज्ञानका नाश होना इस सारे ही प्रमाणरूप ज्ञानसमूहका (अव्यवहित अथवा साक्षात्) फल है।' स्यात् निपातकी अर्थ-व्यवस्था वाक्क्येष्वनेकान्तयोती गम्यं प्रति विशेषणम् । स्यान्निपातोऽर्थ-योगित्वात्तव केवलिनामपि ॥१०३।। ( 'हे अर्हन् ! ) आपके तथा श्रुतकेवलियोंके भी वाक्योंमें प्रयुक्त होनेवाला 'स्यात्' निपात ( अव्यय ) शब्द अर्थके साथ सम्बद्ध होनेसे अनेकान्तका द्योतक' और गम्य-बोध्य ( विवक्षित ) का बोधक-सूचक ( वाचक ) माना गया है-अन्यथा अनेकान्त अर्थकी प्रतिपत्ति नहीं बनती।' व्याख्या-सत्-असत्-नित्य-अनित्यादि सकल सर्वथैकान्तोंके प्रतिक्षेप लक्षणको ‘अनेकान्त' कहते हैं। और अपने वाक्यके परस्पर सापेक्ष पदोंके तथा वाक्यान्तरके पदोंसे निरपेक्ष समुदायका नाम 'वाक्य' है। वाक्यके इस लक्षणसे भिन्न जो परवादियोंके द्वारा प्रकल्पित अन्यथा वाक्य हैं वे निर्दोष न होकर बाधासहित हैं। वाक्यपदी (२, १-२) में वाक्यके प्रति न्याय-विदोंकी बाधा-भिन्नमतिकी सूचना करते हुए दस प्रकारके वाक्योंका उल्लेख है, जिनके नाम हैं--(१) आख्यातशब्द, (२) संघात, (३) जाति संघातवर्तिनी, १. 'द्योतकाश्च भवन्ति निपाताः' इति वचनात् ( अष्टसहस्री) अर्थात्-निपात शब्द केवल वाचक ही नहीं किन्तु ( प्रकृत अर्थसे भिन्न अर्थके ) द्योतक भी होते हैं । २. वाक्यान्तरगतपदनिरपेक्षः ( अष्टसहस्री, पृष्ठ २८५ टिप्पण )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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