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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद १०
अशुद्धिके अभिव्यंजक मिथ्यादर्शनादिको सन्तति अनादिसे चली आती है । और यह वस्तु-स्वभाव है जो तर्कका विषय नहीं होता - अर्थात् स्वभावमें यह हेतुवाद नहीं चलता कि 'ऐसा क्यों होता है ।'
प्रमाणका लक्षण और उसके भेद
।
तत्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वाद -नय-संस्कृतम् ॥ १०१ ॥
' ( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मत में तत्त्वज्ञानको प्रमाण कहा है । वह ( तत्त्वरूपसे जाननेरूप ) प्रमाणज्ञान एक तो युगपत् सर्वभासनरूप ( केवलज्ञान ) प्रत्यक्षज्ञान है और दूसरा क्रमशः भासनरूप ( मति आदि ) परोक्षज्ञान है । जो क्रमशः भासनरूप ज्ञान है वह स्याद्वाद तथा नयोंसे संस्कृत है— स्याद्वादरूप प्रमाण तथा नैगमादि नयोंके द्वारा संस्कारको प्राप्त है - प्रकट होता है ।'
व्याख्या- - तत्त्व ( यथार्थ ) रूपसे जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । वह दो प्रकारका होता है- एक अक्रमभावि और दूसरा क्रमभावि । जो युगपत् समस्त पदार्थोंका प्रकाशन करता है वह अक्रमभावि है और वह पूर्णतया प्रमाणरूप होता है । किन्तु जो क्रमशः पदार्थों का प्रकाशन करता है वह क्रमभावि है तथा वह स्याद्वाद ( प्रमाण ) और नय ( अंशात्मक नैगमादि ) दोनों रूप होता है ।
प्रमाणों का फल
उपेक्षा- फलमाssद्यस्य शेषस्याऽऽदान - हान-धीः । पूर्वा वाज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ॥ १०२ ॥
'युगपत्सर्वभासनरूप जो आद्य प्रमाण केवलज्ञान है उसका ( व्यवहित ) फल उपेक्षा है । शेष क्रमशः भासनरूप जो प्रमाण
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