Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 167
________________ ९८ समन्तभद्र- भारती [ परिच्छेद १० (४) एकोनवयवशब्द, (५) क्रम, (६) बुद्धि, (७) अनुसंहृति, (८) आद्यपद, (९) अन्त्यपद, (१०) सापेक्षपद । इन वाक्यप्रकारोंमें वाक्यके ( अकलंकदेवकृत ) उक्त लक्षणकी दृष्टिसे कौन वाक्य भेद सदोष और कौन निर्दोष कहा जा सकता है, इसका अष्टसहस्री में श्रीविद्यानन्दाचार्य ने सहेतुक विस्तृत विचार किया है । स्याद्वादका स्वरूप स्याद्वादः सर्वथैकान्त-त्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तभंग - नयापेक्षो हेयाऽऽदेय विशेषकः ॥ १०४ ॥ 'स्यात् - शब्द सर्वथा एकान्तका त्यागी होने से 'कि' शब्दनिष्पन्न चित् प्रकारके रूपमें कथंचित् कथंचन आदिका वाचक है— और इसलिये कथंचित् आदि शब्द स्याद्वाद के पर्याय नाम हैं । यह स्याद्वाद सप्तभंगों और नयोंकी अपेक्षाको लिये रहता तथा हेय - उपादेयका विशेषक ( भेदक ) होता है - स्याद्वाद के बिना हेय और उपादेयकी विशेषरूपसे व्यवस्था नहीं बनती !' व्याख्या - जिन सप्तभंगों का यहाँ उल्लेख है उन अस्ति - नास्तिअवक्तव्यादि-रूप सात भंगोंका निर्देश ग्रन्थ में इससे पहले आ चुका है । रही नयोंकी बात, सो नयोंके मूलोत्तर - भेदादिके रूपमें बहुत विकल्प हैं । जैसे द्रव्य-पर्यायकी दृष्टिसे द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ये दो मूल नय हैं; अध्यात्मदृष्टिसे निश्चय और व्यवहार ये दो भी मूल न हैं । शुद्धि - अशुद्धिकी दृष्टिसे भी नयोंके दो-दो भेद किये जाते हैं; जैसे शुद्धद्रव्यार्थिक अशुद्धद्रव्यार्थिक शुद्धपर्यायार्थिक, अशुद्धपर्यायार्थिक शुद्धनिश्चय, अशुद्धनिश्चय सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार इत्यादि । द्रव्याथिक के उत्तरभेद तीन - नैगम, संग्रह और व्यवहार; पर्यायार्थिकके उत्तरभेद चार - ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सप्तनयोंमें प्रथम चार भेद , Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org

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