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समन्तभद्र भारती परिच्छेद १० उभय और अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् ।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति ऽवामिति युज्यते ।।१७।। ( सर्वात्मरूपसे एक व्यक्तिके एक कालमें ) अल्पज्ञानसे मोक्ष और बहुत अज्ञानसे बन्ध इन दो एकान्तोंमें स्याद्वाद-न्यायके विद्वेषियोंके अविरोध सिद्ध नहीं होता, अतः परस्पर विरोधके कारण उभय एकान्त नहीं बनता। अवाच्यताका एकान्त मानने में भी 'अवाच्य' है यह कहना ही नहीं बनता-इससे पूर्ववत् स्ववचनविरोध घटित होता है।
अज्ञान-अल्पज्ञानसे बन्ध-मोक्षकी निर्दोष-विधि अज्ञानान्मोहिनो बन्धा नाज्ञानाद्वीत-मोहतः । ज्ञानस्तोकाच्च मोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा।।९८॥
'मोह-सहित अज्ञानसे बन्ध होता है-जो अज्ञान मोहनीय. कर्मप्रकृति-लक्षणसे युक्त है वह स्थिति-अनुभागरूप स्वफलदानसमर्थ कर्म-बन्धका कर्ता है। जो अज्ञान मोहसे रहित है वह ( उक्त फलदान-समर्थ ) कर्म-बन्धका कर्ता नहीं है। और जो अल्पज्ञान मोहसे रहित है उससे मोक्ष होता है; परन्तु मोहसहित अल्पज्ञानसे कर्मबन्ध ही होता है।
कर्मबन्धानुसार संसार विविधरूप और बद्ध जीव शुद्धि
अशुद्धिके भेदमे दो भेदरूप कामादि-प्रभवश्चित्रः कर्मबन्धाऽनुरूपतः ।
तच्च कर्म स्वहेतुभ्यो जीवास्ते शुद्धयशुद्धितः ॥९९।। 'कामादिकके उत्पादरूप जो भावसंसार कार्य है वह विचित्र है और कर्मबन्धको अनुरूपतासे होता है-द्रव्य-कर्मोका बन्धन
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