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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ९
क्योंकि आर्त - रौद्रध्यानरूप परिणामोंके कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग'में शामिल हैं; जैसे कि हिंसादि क्रिया संक्लेशकार्य होनेसे संक्लेशाङ्गमें गर्भित है । अतः स्वामी समन्तभद्रके इस कथनसे उक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाङ्मनः कर्म योग :', 'स आस्रवः', 'शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोंके द्वारा शुभकायादि व्यापारको पुण्यास्रवका और अशुभ- कायादि व्यापारको पापास्रवका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादि-योगके भी विशुद्धि और संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभावके द्वारा संक्लेशत्व विशुद्धित्व की व्यवस्थिति है । संक्लेशके कारण-कार्य-स्वभाव ऊपर बतलाए जा चुके हैं । विशुद्धिके कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान उसके स्वभाव हैं और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है । ऐसी हालत में स्व-पर-दुःखको हेतुभूत कायादि क्रियाएँ यदि संक्लेश-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती है तो व संक्लेशाङ्गत्वके कारण, विषभक्षणादिरूप कायादिक्रियाओंकी तरह, प्राणियों को अशुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण बनती हैं; और यदि विशुद्धि-कारण-कार्य-स्वभावको लिए हुए होती हैं तो विशुद्धयङ्गत्वके कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादिक्रियाओंकी तरह, प्राणियों के शुभफलदायक पुद्गलोंके सम्बन्धका कारण होती हैं । जो शुभफलदायक पुद्गल हैं वे पुण्यकर्म हैं, जो अशुभफलदायक पुद्गल हैं वे पापकर्म हैं, और इन पुण्य-पाप कर्मों के अनेक भेद हैं । इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिका में सम्पूर्ण शुभाशुभरूप पुण्यपाप-कर्मों के आस्रव-बन्धका कारण सूचित किया है । इससे पुण्य पापकी व्यवस्था बतलाने के लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं ।
सारांश इस सब कथनका इतना ही है कि - सुख और दुःख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हों या परस्थ - अपनेको हों या दूसरोंकोकथंचित् पुण्यरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, विशुद्धि के अङ्ग होनेसे;
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