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समन्तभद्र-भारती
[परिच्छेद ९ हेतु है, अभिप्रायविहीन दुःख-सुखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु नहीं है।
अतः उक्त दोनों एकान्त सिद्धान्त प्रमाणसे बाधित हैं, इष्टके भी विरुद्ध पड़ते हैं और इसलिये ठीक नहीं कहे जा सकते ।
उभय तथा अवक्तव्य एकान्तोंकी सदोषता विरोधान्नोभयकात्म्यं स्याद्वाद-न्याय-विद्विषाम् ।। अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नाऽवाच्यमिति युज्यते ॥९४।।
( पाप-पुण्यके बन्ध-सम्बन्धी प्रस्तुत दोनों एकान्तोंकी अलग मान्यतामें दोष देखकर । यदि दोनों सिद्धान्तोंके एकात्मरूप उभय एकान्तको माना जाय तो वह स्याद्वाद-न्यायसे द्वेष रखनेवालोंके विरोध-दोषके कारण नहीं बनता। अवाच्यताका एकान्त मानने में भी अवाच्य' है यह कहना युक्त नहीं ठहरता है, क्योंकि 'अवाच्य' शब्दके द्वारा वह 'वाच्य' हो जायगा और तब सर्वथा अवाच्यता-- का एकान्त नहीं रहेगा।
पुण्य-पापकी निर्दोष व्यवस्था विशुद्धि-संक्लेशाङ्ग चेत् म्वपरस्थं सुखासुखम् ।
पुण्य-पापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयर्थस्तवाऽहेतः ॥९५।। . 'यदि स्व-परस्थ-अपना अथवा परका-सुख-दुःख विशुद्धि तथा संक्लेशका अङ्ग है-तत्कारण-कार्य वा स्वभावरूप है-तो वह सुख-दुःख यथाक्रम पुण्य-पापके आस्त्रव-बन्धका हेतु है और यदि विशद्धि तथा संक्लेश दोनोंमेंसे किसीका भी अङ्ग-कारण-कार्यस्वभावरूप-नहीं होता है तो ( हे अर्हन् भगवन् ! ) आपके मतमें वह व्यर्थ कहा है-उसका कोई फल नहीं। अन्यथा, पूर्वकारिका ( ९३ ) में कहे हुए 'अकेतनाऽकषायौ' और 'वीतरागो मुनिविद्वान्' पदोंमें जिनका उल्लेख है उनके भी बन्धका प्रसंग उपस्थित होगा।'
व्याख्या-यहाँ 'संक्लेश' का अभिप्राय आर्त-रौद्रध्यानके
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