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समन्तभद्र-भारती
[ परिच्छेद ९
यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि उन अकषाय-जीवोंके दूसरोंको सुख-दुःख पहुँचाने का कोई संकल्प या अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकार की कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषय में उनकी कोई आसक्ति ही होती है, इसलिये दूसरोंके सुख-दुःखकी उत्पत्तिमें निमित्तकारण होनेसे वे बन्धको प्राप्त नहीं होते; तो फिर 'दूसरों में दुःखोत्पादन पापका और सुखोत्पादन पुण्यका हेतु है' यह एकान्त सिद्धान्त कैसे बन सकता है ? - अभिप्रायाभावके कारण अन्यत्र भी दुःखोत्पादनसे पापका और सुखोत्पादनसे पुण्यका बन्ध नहीं हो सकेगा; प्रत्युत इसके विरोधी अभिप्रायके कारण दुःखोत्पत्तिसे पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे पापका बन्ध भी हो सकेगा । जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचानेके अभिप्रायसे पूर्ण सावधानी के साथ फोड़ेका ऑपरेशन करता है परन्तु फोड़ेको चीरते समय रोगीको कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचाता है, इस दुःखके पहुँचनेसे डाक्टरको पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुःखविरोधिनी भावना के कारण यह दुःख भी पुण्य-बन्धका कारण होगा । इसी तरह एक मनुष्य कषायभावके वशवर्ती होकर दुःख पहुँचाने के अभिप्राय से किसी कुछड़ेको लात मारता है, लातके लगते ही अचानक उसका कुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखका अनुभव करने लगता है, कहावत भी है - "कुबड़े गुण लात लग गई”– तो कुबड़ेके इस सुखानुभवसे लात मारनेवालेको पुण्यफलको प्राप्ति नहीं हो सकती - उसे तो अपनी सुखविरोधिनी भावनाके कारण पाप ही लगेगा । अतः यह एकान्त सिद्धान्त कि 'परमें सुख-दुःखका उत्पादन पुण्य-पापका हेतु है' पूर्णतया सदोष है, और इसलिये उसे किसी तरह भी वस्तुतत्त्व नहीं कह सकते ।
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स्वमें दुःख-सुख से पुण्य पापके एकान्तवी सदोषता पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिर्विद्वांस्ताभ्यां युंज्यान्निमित्ततः ॥ ९३||
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