________________
समन्तभद्र-भारती
परिच्छेद ९ जाय तो अचेतन पदार्थ-कण्टकादिक तथा दुग्धादिक-और अकषाय-परिणत जीव-वीतराग-अवस्थामें स्थित मुनि आदिभी दुःख-सुखका निमित्त होनेसे बन्धको प्राप्त होंगे-उन्हें तब अबन्धक कैसे माना जा सकता है ? ( इस पर यदि यह कहा जाय कि उनके दूसरोंको दुःख वा सुख देनेका कोई अभिसंधान या संकल्प नहीं होता इसलिये वे बन्धको प्राप्त नहीं होते, तो फिर परमें दुःख-सुखका उत्पादन निश्चितरूपसे पाप-पुण्यके बन्धका हेतु है ऐसा एकान्त नहीं बन सकता।)
व्याख्या-जब परमें सुख-दुःखका उत्पादन ही पुण्य-पापका एक मात्र कारण है तो फिर दूध-मलाई तथा विष-कण्टकादिक अचेतन पदार्थ, जो दूसरोंके सुख-दुःखके कारण बनते हैं, पुण्यपापके बन्धकर्ता क्यों नहीं ? परन्तु इन्हें कोई भी पुण्य-पापके बन्धकर्ता नहीं मानता–काँटा पैर में चुभकर दूसरेको दुःख उत्पन्न करता है, इतने मात्रसे उसे कोई पापी नहीं कहता और न पाप-फलदायक कर्मपरमाणु ही उससे आकर चिपटते अथवा बन्धको प्राप्त होते हैं। इसी तरह दूध-मलाई बहुतोंको आनन्द प्रदान करते हैं; परन्तु उनके इस आनन्दसे दूध-मलाई पुण्यात्मा नहीं कहे जाते और न उनमें पुण्य-फलदायक कर्म-परमाणुओंका ऐसा कोई प्रवेश अथवा संयोग ही होता है जिसका फल उन्हें ( दूधमलाईको ) बादको भोगना पड़े। इससे उक्त एकान्त सिद्धान्त स्पष्ट सदोष जान पड़ता है। ___ यदि यह कहा जाय कि 'चेतन ही बन्धके योग्य होते हैं. अचेतन नहीं', तो फिर कषाय-रहित वीतरागियोंके विषयमें आपत्तिको कैसे टाला जायगा? वे भी अनेक प्रकारसे दूसरोंके सुख-दुःखके कारण बनते हैं। उदाहरणके तौरपर किसी मुमुक्षुको मुनिदीक्षा देते हैं तो उसके अनेक सम्बन्धियोंको दुःख पहुँचता है । शिष्यों तथा जनताको शिक्षा देते हैं तो उससे उन लोगोंको सुख मिलता है । पूर्ण सावधानीके साथ ईर्यापथ शोधकर चलते हुए भी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org