Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 154
________________ कारिका ९२ ] देवागम अन्यथा वह नहीं बनती। अतः दोनोंमेंसे किसीका भी एकान्त ठीक न होकर स्याद्वाद-नीतिको लिये हुए अनेकान्त-दृष्टि ही श्रेयस्कर है-दैव-पौरुष-विषयक सारे विवादको शान्त करनेवाली है । और इसलिये सब कुछ कथंचित् दैवकृत है, अबुद्धिपूर्वकी अपेक्षासे; कथंचित् पौरुषकृत है, बुद्धिपूर्वको अपेक्षासे; कथंचित् उभयकृत है, क्रमार्पित दैव-पौरुष दोनोंकी अपेक्षासे; कथंचित् दैवकृत और अवक्तव्यरूप है, अबुद्धिपूर्वकी अपेक्षा तथा सहापित दैव-पौरुषकी अपेक्षासे; कथंचित् पौरुषकृत और अवक्तव्यरूप है, बुद्धिपूर्वकी अपेक्षा तथा सहार्पित-दैव-पौरुषकी अपेक्षासे; कथंचित् उभय और अवक्तव्यरूप है, क्रमार्पित-दैव-पौरुष और सहार्पितदेव-पौरुषकी अपेक्षासे। इस तरह सप्तभंगी प्रक्रिया यहाँ भो पूर्ववत् जाननी । इति देवागमाऽऽप्तमीमांसायामष्टमः परिच्छेदः । नवम परिच्छेद पर में दुःख-सुखसे पाप-पुण्यके एकान्तकी सदोषता ( इष्ट-अनिष्टके साधनरूप जो दैव है वह दो प्रकारका हैएक पुण्य और दूसरा पाप। यह दोनों प्रकारका दैव कैसे उत्पन्न होता है, इस विषयके विवादका प्रदर्शन और निराकरण करते हुए आचार्यमहोदय लिखते हैं :--- ) पापं ध्रुवं परे दुःखात् पुण्य च सुखतो यदि । अचेतनाऽकषायौ च बध्येयातां निमित्ततः ।।९२॥ 'यदि परमें दुःखोत्पादनसे निश्चित ( एकान्ततः ) पापबन्धका होना और सुखोत्पादनसे ( एकान्ततः ) पुण्यबन्धका होना माना Jain Education International For Private & Personal Use Only For Priva www.jainelibrary.org

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