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कारिका ९२ ]
देवागम
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कभी-कभी दृष्टिपथसे बाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैर-तले आ जाता है और उनके उस पैरसे दबकर मर जाता है। कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्थामें स्थित होनेपर भी यदि कोई जीव तेजीसे उड़ा-चला आकर उनके शरोरसे टकरा जाता है और मर जाता है तो इस तरह भी उस जीवके मार्गमें बाधक होनेसे वे उसके दुःखके कारण बनते हैं। अनेक निजितकषाय ऋद्धिधारी वीतरागी साधुओंके शरीरके स्पर्शमात्रसे अथवा उनके शरीरको स्पर्श की हुई वायुके लगनेसे ही रोगीजन निरोग हो जाते हैं और यथेष्ट सुखका अनुभव करते हैं। ऐसे और भी बहुतसे प्रकार हैं जिनमें वे दूसरोंके सुख-दुःखके कारण बनते हैं । यदि दूसरोंके सुख-दुःखका निमित्त कारण बननेसे ही आत्मामें पुण्य-पापका आस्रव-बन्ध । होता है तो फिर ऐसी हालतमें वे कषाय-रहित साधु कैसे पुण्यपापके बन्धसे बच सकते हैं ? यदि वे भी पुण्य-पापके बन्धनमें पड़ते हैं तो फिर निर्बन्ध अथवा मोक्षको कोई व्यवस्था नहीं बन सकती; क्योंकि बन्धका मूलकारण कषाय है। कहा भी है"कषायमूलं सकलं हि बन्धनम्" "सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते स बन्धः ।" और इसलिये अकषायभाव मोक्षका कारण है । जब अकषायभाव भी बन्धका कारण हो गया तब मोक्षके लिए कोई कारण नहीं रहता। कारणके अभावमें कार्यका अभाव हो जानेसे मोक्षका अभाव ठहरता है। और मोक्षके अभाव में बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि बन्ध और मोक्ष जैसे सप्रतिपक्ष धर्म परस्परमें अविनाभावसम्बन्धको लिये होते हैं-एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बन नहीं सकता, यह बात इससे पूर्व कारिकाको व्याख्यामें भली प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है । जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य-पापके बन्धकी कथा ही प्रलापमात्र हो जाती है। अतः चेतन-प्राणियोंकी दृष्टिसे भी पुण्य-पापको उक्त एकान्त-व्यवस्था सदोष है।
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