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कारिका ९ ]
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परिणामसे है - "आतं रौद्र ध्यानपरिणामः संक्लेशः " ऐसा अकलंकदेवने 'अष्टशती' टीकामें स्पष्ट लिखा है और श्रीविद्यानन्दने उसे 'अष्टसहस्री' में अपनाया हैं । 'संक्लेश' शब्दके साथ प्रतिपक्षरूपसे प्रयुक्त होनेके कारण 'विशुद्धि' शब्दका अभिप्राय 'संक्लेशाऽभाव' है ( " तदभावः विशुद्धिः" इत्यकलंक: ) उस क्षायिकलक्षणा तथा अविनश्वरी परमशुद्धिका अभिप्राय नहीं है जो निरवशेष- रागादिके अभावरूप होती है, उस विशुद्धिमें तो पुण्य-पाप-बन्धके लिये कोई स्थान नहीं है । और इसलिए विशुद्धिका आशय यहाँ आतंरौद्रध्यान से रहित शुभपरिणतिका है। वह परिणति धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यानके स्वभावको लिये हुए होती है । ऐसी परिणति होनेपर ही आत्मा स्वात्मामें - स्वस्वरूपमेंस्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने ही अंशोंमें क्यों न हो । इसीसे अकलंकदेवने अपनी व्याख्यामें, इस संक्लेशाभावरूप विशुद्धिको "आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्" रूपसे उल्लिखित किया है और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्य प्रसाधिका विशुद्धि आत्मा के विकास में सहायक होती है, जब कि संक्लेशपरिणति में आत्माका विकास नहीं बन सकता - वह पाप-प्रसाधिका होनेसे आत्मा के अधःपतनका कारण बनती है । इसीलिए पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है ।
देवागम
विशुद्धिके कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धिके स्वभावको 'विशुद्धिअंग' कहते हैं । इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशके कार्य तथा संक्लेशके स्वभावको 'संक्लेशाङ्ग' कहते हैं । स्व- परस्थ सुखदुःख यदि विशुद्धिअंगको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-रूप शुभबन्धका और संक्लेशाङ्कको लिए हुए होता है तो पाप-रूप अशुभबन्धका कारण होता है, अन्यथा नहीं । तत्त्वार्थसूत्र में, "मिथ्यादर्शनाऽविरतप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः " इस सूत्र के द्वारा मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूपसे बन्धके जिन कारणोंका निर्देश किया है वे सब संक्लेशपरिणाम ही हैं;
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