Book Title: Aptamimansa
Author(s): Samantbhadracharya, Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 162
________________ कारिका १०] देवागम ९३ कथंचित् पापरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, संक्लेशके अङ्ग होनेसे; कथंचित् पुण्य-पाप उभयरूप आस्रव-बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अङ्ग होनेसे; कथंचित् अवक्तरूप हैं, सहार्पितविशुद्धि-संक्लेशके अङ्ग होनेसे। और विशुद्धि-संक्लेशका अङ्ग न होनेपर दोनों ही बन्धके कारण नहीं हैं। इस प्रकार नय-विवक्षा- . को लिए हुए अनेकान्तमार्गसे ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती हैं- सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं। एकान्त पक्ष सदोष है; जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता। इति देवागमाऽप्तमीमांसायां नवमः परिच्छेदः । दशम परिच्छेद अज्ञानसे बन्धका और अल्पज्ञानसे मोक्षका एकान्त अज्ञानाच्चेद्धवो बन्धो ज्ञेयाऽनन्त्यान्न केवली । ज्ञानस्तोकाद्विमोक्षश्चेदज्ञानाद्बहुतोऽन्यथा ।।९६।। 'यदि ( सांख्यमतानुसार ) अज्ञानसे बन्धका होना अवश्यंभावी माना जाय तो ज्ञेयोंकी अनन्तताके कारण कोई भी केवलीसकलविपर्यय-रहित तथा ज्ञानान्तरकी सहायता-रहित तत्त्वज्ञानरूप केवलसे युक्त-न हो सकेगा। यदि अल्पज्ञानसे मोक्षका होना माना जाय तो अज्ञानके बहत होनेके कारण बन्धका प्रसंग बराबर उपस्थित रहेगा और उसका निरोध न हो सकनेसे मोक्षका होना नहीं बन सकेगा।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190