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कारिका ८९ ]
देवागम सायात्मक पौरुष (पुरुषार्थ ) की सिद्धिको पौरुषसे ही माना जाय तो सब प्राणियोंमें पौरुष अमोघ ठहरेगा-किसीका भी पौरुष तब ( बाधक कारणान्तरके न होनेसे ) निष्फल नहीं जायगा-परन्तु यह प्रत्यक्षके विरुद्ध है; क्योंकि समान-पुरुषार्थ करनेवालोंके भी एकका पुरुषार्थ सफल और दूसरेका निष्फल होता देखा जाता है, ऐसे इस मान्यतामें व्यभिचार-दोष आता है।' - ( यदि यह कहा जाय कि पुरुषार्थ दो प्रकारका है-एक सम्यग्ज्ञानपूर्वक और दूसरा मिथ्याज्ञानपूर्वक । मिथ्याज्ञानपूर्वक पुरुषार्थमें व्यभिचार आने अथवा उसके सफल न होनेपर भी सम्यग्ज्ञानपूर्वक जो पुरुषार्थ है वह सफल होता है अतः सच्चा ( सम्यग्ज्ञानपूर्वक ) पुरुषार्थ सफल ही होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसा कहनेवाले चार्वाकमतवालोंके दृष्टकारणसामग्रीके सम्यग्ज्ञानपूर्वक पुरुषार्थमें भी व्यभिचार-दोष दिखलाई पड़ता है-खेती आदिकी सफलताके दृष्ट-कारणोंका सम्यग्ज्ञान होते हुए भी किसीको तत्पूर्वक खेती आदि करनेपर सफलता नहीं मिलती। और अदृष्टताको प्राप्त ( अदृश्य ) कारण-कलाप प्रत्यक्षरूपसे सम्यग्ज्ञान अल्पज्ञोंके असम्भव है अतः तत्पूर्वक पूरुषार्थ उनके बनता नहीं। यदि अनुमानादि-प्रमाणान्तरसे उस ज्ञानका सम्भव माना जाय तो इसमें दो विकल्प उत्पन्न होते हैं-एक तो यह कि वह अदृश्य-कारणकलाप कारण-शक्तिका विशेष है अथवा पुण्य-पापका विशेष है। यदि उसे कारण-शक्तिका विशेष कहा जाय तो उस शक्ति-विशेषका सम्यग्ज्ञान होने पर भी तत्पूर्वक पुरुषार्थके व्यभिचार दोष दिखलाई पड़ता है; जैसे क्षीणायुष्कमनुष्यमें औषधशक्ति-विशेषके सम्यग्ज्ञानपूर्वक भी उस औषधिको पिलाने आदिका जो पुरुषार्थ किया जाता है वह उपयोगी नहीं होता-निष्फल जाता है। इससे सर्व-प्राणियोंमें पुरुषार्थके अमोघत्वकी सिद्धि नहीं बनती। और यदि उस अदृश्य-कारणकलापको पुण्य-पापादिका विशेष माना जाय तो दैवकी सहायतासे
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